Saturday, 8 July 2017

"सकूँ"



सुबह से निकली गोधुलि लौट रही थी... थकान से जी हलकान हो रहा था... ज्यों ज्यों घर क़रीब आता जा रहा था त्यों त्यों रात्रि भोजन याद आ रहा था साथ ही पकाना याद आ रहा था व साथ याद आ रहा था कि घर में सब्ज़ी के नाम पर ऐसा कुछ नहीं है जो पका सके... शुक्रवार की रात से सोमवार की सुबह तक की चिंता ने विभा को सब्ज़ी के दुकान पर ला खड़ा किया... सब्जी और खरीदार से दुकान भरा पड़ा था... अतीत की बातें थी "सब्जी का मौसम होना"... कई महिलाएँ सब्ज़ी ले रही थी और बातों में मशगुल भी...
एक स्त्री बोली,-"इतना सब लेने के बाद भी, चिंता यह है कि अभी घर जाकर क्या पकाएँगे..."
दूसरी बोली,-सुबह तो कई सब्जियां बना लो... शाम में तो एक मन तो कुछ पकाने का नहीं करता है दूजे ये चिंता पकाए क्या!"
तीसरी बोली,-"बिलकुल सच कहा आपने! मेहनत कर कुछ पकाओ भी तो खाने वाले यही कहते हैं, 'हुँन्हहहह! यही पकाया...
मिला जुला एक अट्टहास गूँजा और विभा टेंशन से टशन में हुई...

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“नगर के कोलाहल से दूर-बहुत दूर आकर, आपको कैसा लग रहा है?” “उन्नत पहाड़, चहुँओर फैली हरियाली, स्वच्छ हवा, उदासी, ऊब को छीजने के प्रयास में है...