"दी! दीदी! सामने देखिए वह वही हैं न , जिन्हें समाज की धारा में लाने के लिए हम इनके आशियाने के अंदर गए थे... गोष्ठी में कभी आना होता था तो पहले अपने घर वालों से आपसे फोन पर बात करवाती थीं , घर वाले सुनिश्चित हो पाते थे तब गोष्ठियों में आ पाती थीं...!"
"अरे कहाँ? ना! ना! कोई दूसरी होगी.. तुम्हें कोई गलतफहमी हो रही हैं!"
"बिलकुल नहीं। मुझे कोई गलतफहमी नहीं हो रही है.., उड़ती चिड़िया के पर गिनती हूँ.. रात्रि, थोड़ी दूरी और थोड़ा अंधेरा होने से आपको ठीक से पहचान में नहीं आ रही होगी..!"
"नहीं ना रे! ना दूरी है और ना अंधेरा... चकाचौंध पैदा करने वाली चेहरे की सजावट और ग्लैमरस पोशाक से धोखा खाने पर विवश हो रही हूँ... समीप जाकर पूछ लूँ, राजनीत गलियारे में आने वाली दो परती चेहरे का राज..., कैसे उड़ान भरी होगी वो इतनी ऊँची...!"
"ना ,दीदी! ना! बेहद कठिनाई से आपके सहारे देहरी लाँघी है..., शिखर से तो अभी जलधारा निकली है!"
"शिखर से गिरी जलधारा जलजला न बन जाये उसके लिए उसका तट तय करना होता है...!"
"शिखर से गिरी जलधारा जलजला न बन जाये उसके लिए उसका तट तय करना होता है...!"
ReplyDeleteकितनी बड़ी बात कितने कम शब्दों में कह दिया आप ने। सादर नमन है आप को और आप की लेखनी को
हार्दिक आभार आपका
Deleteसादर नमन आप की लेखनी को
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