बरसात के बाद भीगी सड़क पर पेड़ों की परछाइयाँ काँप रही थीं, और अत्यधिक ठंड के एहसास से शाम सोने ही जा रही थी। आसमान से झरती कालिमा लिए नीली उदासी ज़मीन पर फैल रही थी, ठीक वैसी ही, जैसे राघव बाबू के मन की परछाई हो। वे बालकनी में अकेले बैठे थे। सामने खाली बेंच, बगल में ठंडी हो चुकी चाय और उनके भीतर कहीं जमता हुआ उनके घर का ही सन्नाटा।
बाहर बहुत तेज हवा चल रही थी, और उनके भीतर—यादों की धूल, जो हर रात, थोड़ी-सी और जमती जा रही है। कभी यह उनका घर आवाज़ों से भरा रहता था—विमर्श-हँसी, चुहल-बहस, जल्दी-जल्दी फटते तकिया बिखरते बर्फ से रूई!
आज सब कुछ स्थिर था, जैसे समय ने ही उनकी साँस रोक ली हो। उनके तीन बच्चे दो बेटी और एक बेटा! लेकिन बेटा मानव आधुनिकता का शिकार! एक दिन वह विदेशी-परदेशी भीड़ में खो गया था—कहकर गया था कि “जल्दी लौटूँगा।”
पर कुछ विदाइयाँ लौटने के लिए नहीं होतीं, वे बस स्मृतियों में टिक जाती हैं—काँच की तरह, चुभती हुई। राघव बाबू को उसका जाना नहीं तोड़ सका, पर उसका बदल जाना भीतर ही भीतर उनके अन्दर कहीं दरार छोड़ रहा था! कभी जो बेटा उँगली पकड़कर चलना सीखता था, वही आज उँगलियाँ मोबाइल पर दौड़ती हैं—लेकिन जहाँ पिता का नाम ‘मिस्ड कॉल’ बनकर रह गया है।
“चाय ठंडी हो रही है, बाबूजी…” पड़ोसी लड़के की आवाज़ ने उन्हें वर्तमान में लौटाया।
उन्होंने हल्की मुस्कान ओढ़ ली—
“ठंडी चाय नहीं बेटा…। कुछ रिश्ते ठंडे पड़ जाते हैं, वही पी रहा हूँ। बिना गलती किए भी गलती ढूँढकर अच्छाई भूल जाना आसान है!”
रात गहराई। खिड़की से झाँकता आधा चाँद जैसे अधूरी बात कहकर रुक गया हो। माधव बाबू ने डायरी खोली और एक पंक्ति लिखी—
“घर इंसान के जाने से नहीं, उसके बदल जाने से सूना होता है।”
लेकिन उनकी डायरी बन्द होने के पहले उनका मोबाइल बजा-
“हैलो”
…
क्य्ययाऽ? सच में? मानव तुम लौट रहे हो…,” राघव बाबू की विस्फारित आँखें रक्तरंजित हो रही थीं।

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