रंगमंच के पीछे बने छोटे-से ‘तैयारी कक्ष’ में बैठे आदित्य ने उत्तेजनापूर्ण स्वर में कहा, “हद हो गई यह तो। अंतराल के दौरान कार्यक्रम ठहर-सा गया था और उसी ठहराव को तोड़ने के लिए इन हम लोगों ने आधे घंटे में इतना बढ़िया पौराणिक प्रसंग तैयार कर मंच पर प्रस्तुत कर दिया, लेकिन जैसी आशा थी, वैसा तो कुछ हुआ नहीं। न तालियों की गड़गड़ाहट और न दर्शकों का उत्साह!”
विक्रम ने निराश स्वर में कहा, “हमने तो जैसे सूने में प्राण फूँक दिए! इतनी मुश्किल से तैयारी की, और मजाल है कि कोई एक बार भी बोले कि अच्छा किया! और तो और, अध्यक्ष महोदया तो कुछ बोलतीं कम से कम।”
आदित्य ने होंठों पर हल्की व्यंग्य-रेखा खिंची, “आदरणीया नीरा वाजपेयी को तुम जानते ही हो। तुझे पता है न वजह? आदरणीया को देवी-देवता, धर्म-वर्म पर प्रस्तुति पसंद नहीं। एक तो करेला, उस पर नीम चढ़ा सा है! हम इतने आधुनिक हो गए हैं तथा साथ में विदेशी भी हो गए हैं! बस! यहीं उनके समझ से गड़बड़ हो गई।”
तभी दरवाज़े की कुंडी खड़की। कमरे में नीरा बाजपेयी कदम रख चुकी थीं— चेहरा कठोर, आँखें तपती हुई, और चाल में अनुशासन की तीखी गूँज। विक्रम के भीतर कहीं आशा थी कि अब जाकर सराहना सुनने को मिलेगी। पर उनकी आवाज़ तो मानो बर्फ पर पड़ी चोट-सी थी।
“यह क्या किया तुम लोगों ने?” उनके शब्द धारदार थे,
“संस्था की मर्यादा भी कोई चीज़ होती है। मंच पर जो प्रस्तुत किया गया है, वह हमारी संस्था के नियमों के पूर्णतः विपरीत है। मुझे पूर्व सूचना होती, तो मैं कभी अनुमति नहीं देती!”
विक्रम हतप्रभ रह गया! “आदरणीया हमने तो बस खाली समय भरने के लिए- भक्ति-भाव से—”
“बस!” नीरा ने फाइल मेज पर पटक दी। वह आवाज़ कमरे की हवा को चीरती चली गई।
“यह मेरा व्यक्तिगत मत नहीं है,” वे बोलीं, “संस्था की नीति है—कला को निष्पक्ष रखना। यहाँ न धर्म चलेगा, न राजनीति। तुम लोगों ने अच्छी नीयत से किया होगा, पर नीयत कभी नियम से बड़ी नहीं होती। मंच एक पवित्र स्थान है, और उसकी शालीनता उसकी सबसे पहली शर्त।”
कमरा अचानक बहुत छोटा लगने लगा था। पसीने की गंध के बीच अब खामोशी और अपराधबोध की परतें भी घुल चुकी थीं। विक्रम बुदबुदा रहा था- “कला का काम केवल प्रस्तुति देना नहीं, बल्कि उसके सीमित दायरे को समझना भी है। मंच की गरिमा, उसके नियम, उसकी तटस्थता— अगर इनसे बाहर कदम उठा लिया जाए, तो प्रस्तुति कला नहीं, अराजकता बन जाती है।”
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