Monday, 21 January 2019

हो सके तो किसी का दर्द बाँट लो

गरिमा सक्सेना(फेसबुक से मिली एक प्यारी बिटिया) से जानकारी मिली कि बैंगलोर में केवल महिलाओं का एक साहित्यिक समूह 'प्रेरणा मंच' है उसकी एडमिन का व्हाट्सएप्प नम्बर मुझे वो दी... मैं एडमिन से व्हाट्सएप्प पर बात की और एडमिन मुझे 'प्रेरणा-मंच' व्हाट्सएप्प समूह से जोड़ दी... जब मैं वहाँ अपना परिचय दी तो मुझे वहाँ राही राजेन्द्र जी मिले... राही राजेन्द्र जी के घर पर 13 जनवरी को एक बैठक रखा गया तो वहाँ दुर्गेश मिश्रा जी मिले... दुर्गेश जी से परिचय के दौरान पता चला कि उनको एक लड़का था जो कुछ महीनों पहले एक दुर्घटना में उनसे बिछुड़ गया...
 दुर्गेश जी का इकलौता बेटा चल बसा है... सुनकर धक्क सा रह गया मेरा मन... वे बेहद दुखी थे... स्वाभाविक था.. : सब लोगों ने कहा कि आप आये तो अपनी पत्नी को साथ क्यों नहीं लाये ?
"वो कहीं जाने की स्थिति में नहीं है... कहीं जाना नहीं चाहती है.."
मुझे भी लगा कि जिसका जवान बेटा साथ छोड़ गया हो उसको कहीं जाने का मन क्यों करेगा... जब गोष्ठी खत्म हुई और मैं वापस आने के लिए ओला बुक करने लगी तो दुर्गेश जी बोले कि"दीदी! आप मेरे साथ चलिए.. कुछ देर और का आपका साथ मिलेगा.."
: मैं तैयार हो गई और हम साथ चले.. रास्ते में बातों के क्रम में पता चला उन्हें एक बेटी भी है.. थोड़ी दूर आने पर वे बोले कि दीदी आप मेरे घर चलिए वहीं से ओला बुक कर दूँगा... जो प्रतीक्षा करनी होगी उतनी देर मेरे घर पर ही बैठ लीजियेगा.. मैं तैयार हो गई.. रात का समय ना जाने ओला वाला कितनी देर में आये
: उनके घर गई... पहुँचते ओला बुक कर दी.. पहली मुलाकात थी उनकी पत्नी और बेटी से बस हैलो हाय हुआ और ओला आ गया... निकलने लगी तो उनकी पत्नी बोली ,"आप फिर आइयेगा फिर कब आइयेगा... ?"
दुर्गेश जी भी बोले, "दीदी आपको फिर आना होगा, जल्द आइयेगा..!"
मैं रास्ते भर और रात भर सोचती रही , ऐसा क्या था जो पहली मुलाकात में वे लोग चाहते थे कि मैं आऊँ?
सुबह-सुबह राही राजेन्द्र जी का फोन आया,"कैसी हैं दी? रात में ठीक से पहुँच गई थीं?"
"हाँ.. सब ठीक रहा.. दुर्गेश जी अपने घर ले गए वहीं से ओला बुक हुआ और मैं आराम से घर वापस आ गई। सुनिए न भाई, दुर्गेश जी और उनकी पत्नी मुझे अपने घर फिर बुलाएं.. क्या आप और भाभी भी मेरे साथ चलिएगा.. अकेले जाऊँगी तो क्या बात होगी.. कितनी देर बात होगी...? जवाहर जी को भी बोल दीजियेगा वे भी अपनी पत्नी के साथ चलेंगे..।"
"ठीक है दी! जवाहर जी को भी बोल देते हैं.. हम चारों व्यक्ति चलते हैं।"
"ठीक है जवाहर जी को भी बोल दीजियेगा... उसके पहले दुर्गेश जी से फोनकर दिन और समय तय कर लीजियेगा... एयरफोर्स में काम करते हैं तो रविवार को छूट्टी होती है या कोई और दिन पता कर लीजियेगा..!"
"ठीक है दीदी... फोन से बात कर बताते हैं...।" कुछ ही देर के बाद राही जी का फोन आया,"सुनिए न दीदी! दुर्गेश जी से बात हुई लेकिन वे बहुत उत्साहित नहीं लगे। बोले कि आप आइये बात-चीत होगी, लेकिन गोष्ठी नहीं होगी... हमें जाना चाहिए कि नहीं?"
"क्यों नहीं जाना चाहिए..! वे काव्य पाठ में रुचि नहीं रख रहे होंगे कि आस-पास के लोगों की चिंता कर रहे होंगे कि,'क्या कहेंगे लोग'..।"
"जी इसलिए उन्होंने केवल मिलने के बुलाया है... क्या जाना ही चाहिए?"
"प्रयागराज का संगम हमें सिखलाता है दूसरों के लिए अपने अस्तित्व को खो देना...!"
"ठीक है दीदी! मैं जरूर जाऊँगा लेकिन जवाहर जी को बोल दिये हैं... आप उन्हें भी लेने के लिए बोल दी थीं...!"
"कोई बात नहीं बोल दिया गया है तो मना तो किया नहीं जा सकता है... और किसी को नहीं बोला जाएगा... लेकिन प्रतीक्षा रहेगी कि वे रविवार के पहले , हमलोगों के आने के लिए स्वयं से वे सुनिश्चित करते हैं कि नहीं...!"
दो दिन बाद राही जी का फोन आया कि दीदी वे रास दादा को भी आने के लिए बोले हैं... रास दादा जा रहे हैं तो हमलोग भी चलेंगे...! है न दीदी...?"
"जरूर चलेंगे...!"
शनिवार को दुर्गेश जी के ही फेसबुक के पोस्ट पर दुर्गेश जी मेरे टिप्पणी के जबाब में टिप्पणी कर दिए कि "कल आ रही हैं दीदी?"
 कल यानी रविवार 20 जनवरी को सुबह से सारे कार्यों से निवृत्त होकर ओला बुक करना शुरू किए... 12:20 ओला बुक हो गया... 13 मिनट में आएगा... मेरी प्रतीक्षा शुरू हुई 13 मिनट 10 मिनट में बदला और रेकॉर्ड पर अटके सुई की तरह अटक गया... डेढ़ बजे दस मिनट अट्ठाइस मिनट में जब बदल गया और मैं प्रतीक्षा में ऊब चली थी क्यों कि डेढ़ से दो के बीच मुझे दुर्गेश जी के घर पर पहुँच जाना था... दुर्गेश जी और जवाहर जी का फोन भी लगातार आ रहा था कि मैं घर से निकली या नहीं निकली... दुर्गेश जी का कहना था कि देर भी हो तो थोड़ी देर के लिए भी अवश्य आऊँ...। खैर! मैं निर्णय ली कि अब ओला की प्रतीक्षा नहीं करनी है किसी से लिफ्ट ले मुझे शहर के मुख्य सड़क तक जाना होगा और वहाँ से ओला बुक करना होगा...

अपने पति महोदय को सूचित की और सन्न निकल भागी क्यों कि उनके जबाब मुझे मालूम थे
–क्यों जाना है इतनी परेशानियाँ उठाकर
–जाना ही क्यों जरूरी है... इत्यादि
बाहर आकर कुछ देर इंतजार के बाद एक ऑटो मिला, हो सकता है किसी ने रिजर्व कर लाया हो वह वापस हो रहा था उससे मुझे सड़क तक आये... ओला बुक किये एक नौजवान की मदद से और दुर्गेश जी के घर लगभग तीन बजे पहुँच गई... ढ़ाई-पौने तीन बजे के लगभग रास दादा-उनकी पत्नी, राही राजेन्द्र-उनकी पत्नी और जवाहर जी पहुँच चुके थे.. जवाहर जी की पत्नी को अनजानों से मिलने में कोई रुचि नहीं..
मुख्यतः रास दादा राजनीतिक बातें करते रहे, कुछ गुनगुनाते रहे.. कुछ देर में बिना पत्नी को लिए कन्हैया प्रसाद जी भी आ गए... उनकी पत्नी भी काव्य वालों के बीच नहीं जाती हैं...
रास दादा के गुनगुनाये दो पंक्ति मुझे बेहद पसंद आई तो पूरी रचना सुनाने का आग्रह कर बैठी... फिर खुद दुर्गेश जी चार पंक्ति–चार पंक्ति कह माहौल बदल डाला... सबकी कविताओं की धारा बह निकली.. राही जी की पत्नी एक भजन सुनाई... जब मैं सुर पकड़ती कि अब वापस हुआ जाए तो दुर्गेश जी की पत्नी मुझे पकड़ लेती,"दीदी थोड़ी देर और!" रास दादा बोलते कि आप अब तक कुछ सुनाई ही नहीं चार पंक्ति सुना दीजिये... तबतक किसी और की रचना फड़फड़ाने लगती.. कुछ समय बढ़ जाता... अंततः जब शाम के छः बजे गए तो मुझे कहना पड़ा कि अब मैं सबका धन्यवाद करती हूँ और अपनी कुछ बात कहती हूँ...
"मैं राम-रहीम, शिव कृष्ण को नहीं मानती हूँ लेकिन एक शक्ति को जरूर मानती हूँ जो हमारी साँसों की डोर को नचाता रहता है... सब कहते हैं कि उसकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता , बात सही भी है हम किसी को जीवित कहाँ कर पाते हैं... तो अगर उसने कोई ऐसा गम दिया है जिससे हमारी साँसों की डोर वह काट नहीं सका है तो हमें इतनी और शक्ति दिया है कि उसके दिए और भारी चोट को हम बर्दाश्त कर सकें... *दिया उसने, लिया उसने* पता नहीं साँसों का डोर कब कट जाए... ऐसा नहीं होकर ऐसा होता मानों जन्में बच्चे की नाल कटती हो... बहुत छोटी जिंदगी है... सबका जाना तय है... तो क्यों न हम मुस्कुराते हुए काट लें... आज हम सारे बिहारी एक जगह जमा हैं लेकिन बिहार में कभी नहीं मिले... आज आने में रुकावटें आ रही थी लेकिन उसने मेरा मनोबल बढ़ाये रखा कि आऊँ और आपको बता दूँ कि मेरे भाई के जाने के बाद उनके गम में मेरी माँ चली गई... मेरी माँ के लिए एक बेटा गया महत्वपूर्ण रहा, चार बच्चे उनके प्यार के लिए तरसता उनमें एकबाल पुत्र महत्त्वपूर्ण नहीं रहा... ऐसा ना हो कि गए पुत्र के गम में आप दोनों पति पत्नी इतने डूब जायें कि समाज को एक और विभा मिले प्यार और सहारे के लिए छछनती... बिन माँ की बेटी का जीवन... जेठ की दोपहरी में रेत पर नंगे पाँव चलना और सर पर दहकता सूर्य ढ़ोना...

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