Monday, 3 June 2019

बस यूँ ही


हमें क्या पसंद हमें क्या अच्छा लगता
इससे आगे हमारा दायरा कहाँ बढ़ता
रात रात क्यों है रोने का ढूंढ़ता बहाना
चक्रव्यूह अभेदक स्व गढ़कर रखता

मरु पै पड़ी रश्मि प्यासा माखौल रब कहता।
दूसरा दूसरे के दर्द का थाह ले नहीं सकता।
गुलशन के सजे सँवरे में भौंरा अटका रहे,
अंदर का बिखरा समेट लेने में समय लगता।

होड़ लगी है कितना का कितना हसोत लें।
छल-बल से मेढ़ खा सारा का सारा जोत लें।
जो संग जाता दुनिया को गठरी में बाँध लेते
परवरिश भुला संस्कार पर कालिख पोत लें।

2 comments:

आपको कैसा लगा ... यह तो आप ही बताएगें .... !!
आपके आलोचना की बेहद जरुरत है.... ! निसंकोच लिखिए.... !!

कंकड़ की फिरकी

 मुखबिरों को टाँके लगते हैं {स्निचेस गेट स्टिचेस} “कचरा का मीनार सज गया।” “सभी के घरों से इतना-इतना निकलता है, इसलिए तो सागर भरता जा रहा है!...