"जरा संभलकर! सम्मान से उठाना इन बुझे दीपों को। इन्होंने बीते रात स्व जलकर सबको प्रकाशित किया है...," बड़े-बड़े शृंगारित दीपों को निहारती मधु ने अपने सहायिका से कहा।
"और आप अपने जीवन के प्रकाश का हाल कब पता करेंगी?" मधु का ध्यान भंग करती हुई रचना ने कहा।
"अरे रचना तुम! तुम कब से खड़ी हो?" रचना को गले लगाते हुए, "तितलियों से घिरे प्रकाश के हाल का क्या पता करना?" कहा।
"अफसोस है कि इतने वर्षों से अलग रहने के बाद भी आपकी गलतफहमी दूर नहीं हुई! माना कि उनके महिला मित्रों से आप अपने रिश्ते को असुरक्षित महसूस करती थीं, लेकिन आज उनकी कोई महिला मित्र उनके साथ रहना या अपने घर ले जाना कहाँ कर रही हैं?"
"सूखे फूल पर कहाँ दिखेंगी तितलियाँ!"
"तितलियाँ नहीं दीमक कहिए, जिन्हें गुनना नहीं बस... सहायिका को जमीन खरीदकर उसपर घर बनवाकर देने के बाद वो कहती है कि क्या ईंट निकालकर खायें!"
"अपने आजीवन किराए के मकान में रहने का निर्णय रहा। जो बचा है मुझे ही संभालना होगा?"
"गाढ़े दिन दूर होंगे..!"
कमजोर दिमाग फिर भी मान लेते हैं दूर होंगे
ReplyDelete🙏😆
Deleteहार्दिक आभार आपका
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteहार्दिक आभार
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteछोटी सी गूढ़ बात
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