“नगर के कोलाहल से दूर-बहुत दूर आकर, आपको कैसा लग रहा है?”
“उन्नत पहाड़, चहुँओर फैली हरियाली, स्वच्छ हवा, उदासी, ऊब को छीजने के प्रयास में है। अच्छा लगना स्वाभाविक है!”
“यहाँ होने वाले, दो दिवसीय विधा-विशेष पर आधारित आयोजन में क्या आप भी सम्मानित होने के होड़ में हैं?”
“साहित्य की अध्येता हूँ…! मेरे लिए विधा विशेष पर लेखन भी कठिन है! यह बात आयोजक को भी पता है। इसलिए मुझे क्यों सम्मान मिलेगा. . .! मेरे आने का उद्देश्य सिर्फ सीखना है और मुख्य बात जो सीख मिली साहित्य साथ खड़ा होना सिखलाता है!”
तभी मंच संचालक उत्तर देने वाली का नाम पुकारती है और उसे सम्मानित करने के लिए मंचासीन अतिथियों से सादर अनुरोध करती है! संयोजक बेहद भावुक होकर सम्मानित करते हैं। मंच से अलग हटते ही पुनः अपनी उत्सुकता प्रकट करती है पत्रकार
“वैसे तो आपको सम्मानित करने वाले भी गौरवान्वित होंगे। जो सम्मान भाभी माँ(माँमीरा) के हाथों मिलना था : वही माँमीरा सम्मान पाना : कैसी अनुभूति रही?
“कैसे कोई शब्दों में व्यक्त करे—!”
साहित्य साथ खड़ा होना सिखलाता है— लेकिन शायद कुछ लोगों को आपका सम्मान होना समयोचित नहीं लगा हो : आपका क्या विचार है?”
“मुख्य आयोजक की यह इच्छा सन् 2018 से थी : अनेक कार्यक्रमों में मेरी अनुपस्थिति होने के कारण यह अभी तक 2025 में हो सका। वक्त जब समय तय कर दे-। बुरा लगना -अच्छा लगना अपने मन के भाव है।”
“क्या आपको भी ऐसा लगता है कि यह संस्था महिलाओं के लिए है?”
“जैसे हमारी संस्था को आगन्तुक अतिथि कहते हैं, ‘महिलाओं की संस्था है?’ कोई भी संस्था सृजकों की, रचनाकारों की, साहित्यकारों, इन्सानों, मनुष्यों की होती है. . .! कुंठित मानसिकता लिंग भेद पर विचार व्यक्त करते हैं. . .!
: क्षणभंगुर जीवन : बुलबुले सा : मोह में फँसें मानव. . .! बस! पाने की चाहत है : देने की होड़ हो तो कुछ कमाया जा सके, जिसे छोड़ कर जाने में आनन्द आए. . .!”