Saturday 27 September 2014

यादें




मेरे लिए तो हर दिन त्यौहार होता था ,जब तक मेरी माँ जीवित रहीं ..... छोटा - बडा कोई पर्व हो तो मेरे लिए नये कपडे बनते थे ..... 
और वो कपड़े मेरी माँ ही सिलती थीं .... 
मेरे नखरे दर्जी उठा ही नहीं सकता था .... 
कपड़ा खरीदने से लेकर सिलने तक 
युद्ध-स्तर का एक चुनौती होता था मेरी माँ के लिए ,
क्यूँकि कपडे के दुकान पर मुझे ना तो रंग-डिजाईन और ना कपड़े की क्वालिटी जल्दी पसंद आते थे ..... 
दो चार बार तो बाजार जाना ही जाना पड़ता था .... 
फिर सिलाई की बारी आती तो पोशाक का डिजाइन में भी 
माँ को बहुत तंग करती थी मैं .... 
एक बार दशहरा का ही अवसर था ..... 
मेरे लिए कपडे सिलने थे …… 
लेकिन मेरे स्वभाव के कारण मेरी माँ बहुत परेशान हो चुकीं थीं ..... 
उन्होंने बहुत मनाने की कोशिश की 
लेकिन मेरे नखरे कम ही नहीं हो रहे थे ..... 
समय रुका नहीं रहा और दशहरा शुरू भी हो गया 
तब मेरी जिद थोड़ी कम हुई तब तक माँ शायद कुछ निर्णय ले चुकी थीं उन्होंने सिलने से साफ इनकार कर दिया ...
अब पसीना छूटने की बारी मेरी थी ..... बहुत जिद के बाद भी वे सिलने के लिए तैयार नहीं हुईं .... उनका कहना था ,इतने नखरे हैं तो खुद सील कर देखो ..... 
मुझे नये कपड़े पहनने ही थे .... सहेलियों के बीच प्रतिष्ठा की बात थी .... 
तब स्लैक्स का जमाना था इसलिए केवल उपर के टॉप सिलने थे ..... पहली बार कैंची कपड़े और मशीन से वास्ता पडा मेरा और अब बारी मेरी माँ के चौकने की थी ..... 
लेकिन उस सिलाई के दौरान मेरे नखरे जाते रहे जिद के चीथड़े जो उड़े 
अब ना तो माँ रहीं और ना मेरी जिद। ....... 
==
अधीर बन
बेबाकी चुन्नी ओढे
अभिलाषा हँसती
देहरी लाँघे 
मचली पथ पाने
शासन डोर छोड़े
==
मंदिर की सीढियां चढ़ नहीं सकी
मन मैले हो रखे थे दीप जला नहीं सकी

== तो क्या हुआ कोशिश में रही 
किसी के आँखों की आँसू ना बनूँ 
==

5 comments:

  1. आंटी नमस्ते...
    समय के साथ इस दुनिया से सब को जाना पड़ता है...आप की माता जी आप के साथ पल पल की यादों के रूप में हमेशा जिवित हैं।

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  2. यादें ही हमारे अपनों को हम में जीवित रखती हैं।

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  3. बहुत नाज़ुक अहसासों के साथ लिखी रचना ।

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