Saturday, 24 December 2016

गुजरा या गुजारा



आदत नहीं कभी बहाना बनाना
फुरसताह समझता रहा ज़माना
छिपा रखें कहाँ टोंटी का नलिका
सीखना है आँखों से पानी बहाना

नाक बिदुरना आना बहुत जरूरी होता है
~ कल का पूरा दिन .... कई अनुभवों का उतार चढ़ाव देखते गुजर गया .... 




अनी

संगीनी

अभिमानी

मैला तटनी

रिश्ते दूध-खून

पिसते नुक्ताचीनी
भू

उत्स

निपान

सरी सुता

दूध सागर

हिंद का सम्मान

पिता गिरी का दान

4 comments:

  1. आभारी हूँ _/\_
    बहुत बहुत धन्यवाद आपका

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  2. आपके प्रयोग चमत्कृत करते हैं दीदी!!

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    1. आपकी टिप्पणी उत्साहवर्द्धक होती है भाई
      आभारी हूँ

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आपको कैसा लगा ... यह तो आप ही बताएगें .... !!
आपके आलोचना की बेहद जरुरत है.... ! निसंकोच लिखिए.... !!

“नगर के कोलाहल से दूर-बहुत दूर आकर, आपको कैसा लग रहा है?” “उन्नत पहाड़, चहुँओर फैली हरियाली, स्वच्छ हवा, उदासी, ऊब को छीजने के प्रयास में है...