Thursday, 4 March 2021

महोत्सव

04 मार्च 1921 – 04 मार्च 2021

साहित्यकार फणीश्वर_नाथ 'रेणु' जी का जन्मशती महोत्सव




01. विवर्ण भीत–

पत्रों की पेटिका में

पाखी के अण्डे

02. बाल विवाह–

तितली और कंचे

डोली में रखे

03. आँसू सिक्ताक्स

पश्चदर्शी शीशा में–

रण प्रारम्भ

04. सिमटे पाल

सरि से सिन्धु तक–

क्रौंच का रोर



05. अम्मू की डायरी

25 फरवरी 2018

दिल्ली से पटना आने वाली पुरवोत्तर सम्पर्क क्रांति 23 :45 में थी...  दोपहर से ही मेरी अकुलाहट बढ़ रही थी..  मुझे जल्दी भागना था.. हाँ! भाग निकलने की बैचेनी हो रही थी... साढ़े चार तक निकल ही भागी हाँ! भागते हुए निकली...

स्टेशन पहुँच ज्यों ही प्रतीक्षालय में बैठी कि बुचिया का फोन आया

"कहाँ हो अम्मू?"

"स्टेशन पर हूँ तुम कहाँ हो?

"मैं भी स्टेशन पर हूँ... मेरी ट्रेन छूट गई अम्मू... मैं क्या करूँ अम्मू... ?"

"अम्मू है तो चिंता क्यों करना...!" प्रतीक्षालय में हूँ आ जाओ सोचते हैं..."

प्रतीक्षालय में बुचिया आई , बेहद घबराई चिंतित...

"पहले तो रोनी सूरत बदलो... चिंता चतुराई चुरा लेती है..."

बहुत कोशिश की गई किसी तरह उस बोगी में कन्फर्म टिकट की व्यवस्था हो जाये ,जिस बोगी में हमारी टिकट थी... लेकिन होली का समय... घर आने का उल्लास... बिहारियों की भीड़ उमड़ी हुई थी स्टेशन पर... जेनरल टिकट लेकर ट्रेन की प्रतीक्षा शुरू हुई... रात के 2:50 में जाने की घोषणा सुन बुरा लगना चाहिए था लेकिन हम तो सेल्फी सेशन में व्यस्त हो-हल्ला किये जा रहे थे... दूसरे यात्री हमें दूसरे ग्रह का जीव समझ रहे थे... एक महिला चिल्ला भी पड़ी, उसकी नींद उचट गई हमारे ठहाके से... हम अपने तनाव को अपने ऊपर हावी नहीं होना देना चाहते थे... एक चुनौती थी, उस रात रेलयात्रा... साढ़े तीन-पौने चार के करीब रेल आई... टी. टी. की प्रतीक्षा ही रह गई रातभर.. अगर ट्रेन में चढ़ने के समय या तुरन्त टी. टी. से बात हो जाती तो शायद उसे रहम आता... लेकिन टी. टी. महोदय आये दूसरे दिन लगभग शाम को जब हमारी यात्रा समाप्ति की ओर थी... बोगी में आते उनका दूसरे यात्री से उलझना हो गया... मेरी बुद्धि जबाब दे गई कि ये महोदय तो कुछ सुनने वाले नहीं और संग है पुलिस... बुचिया को इशारा की... फिर डैने में छुपा गुजर गई यात्रा... हम लोमड़ी बिलकुल नहीं हैं..।

20 जुलाई 2019

"सुनो न अम्मू! कोई सफलता मिलने पर लोग व्यक्तित्व की सफलता नहीं मानकर चरित्र पर उँगली क्यों उठा देते हैं?

आज बुचिया थोड़ी ज्यादा ही व्यथित थी..। वो अपने को साहित्यिक समाज में स्थापित करने के प्रयास में है। साहित्य में कई खेमे बंटे हुए हैं। आगे बढ़ने वाली को लंगड़ी लगाने वाले ज्यादा मिल रहे हैं। राजनीतिक गलियारा तो बेवजह बदनाम है। कोमल मन.. क्या करें समाज के अराजक तत्व पत्थर बना रहे हैं।

"तुम इतनी समझदार और सुलझी हुई हो कि मेरा कुछ भी कहना बचकाना लग सकता है तब भी दो बात कह जाना चाहती हूँ..

–हम विचलित इसलिए हो जाते हैं कि दूसरे के संस्कार परवरिश परिवेश से उपजी बातों के लिए खुद को जिम्मेदार समझने लगते हैं.. होना नहीं चाहिए न ?

–बहुत पुरानी बात है .. लेंगे तभी असर करेगा... जो नहीं पसन्द उसे नहीं लेते तो क्यों असर करेगा...

18 दिसम्बर 2020

"जानती हैं अम्मू मुझे मिट्टी का चूल्हा बनाना आता है! दादी सिखलाई थी, मुझे ये चूल्हा 'पारने' आता है.."बुचिया नन्ही विहँस रही थी।

"वाह मेरी सुघड़ लाडो! दादी का स्नेह जिन्हें मिला उनका जमी पर पकड़ बनाये नभ में विचरण स्वाभाविक तौर पर हो जाता है... मेरी बुचिया इसलिए ऐसी है!"

04 मार्च 2021

प्रभात खबर, दैनिक जागरण हिन्दुस्तान जैसे प्रसिद्ध अखबारों की परिचर्चा में और कई स्थानीय संस्थाओं में वह वक्ता के तौर पर आमंत्रित थी मौका था फणीश्वरनाथ रेणु के जन्मशती महोत्सव का। वरिष्ठ साहित्यकारों के संग मंच साझा करना और उसके संचित ज्ञान तथा सधा संचालन साझा नभ का कोना देखना सुखद दिवस गुजरा।



4 comments:

  1. सुंदर क्षणिकाएं एवम सार्थक आलेख..सादर शुभकामनाएं..

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  2. आदरणीय दीदी , बहुत अच्छा लिखा आपने पर और विस्तार से लिखते तो और भी अच्छा लगता | सादर शुभकामनाएं और आभार | रेणु शताब्दी समारोह का हिस्सा होना अपने आप में बहुत बड़ा सौभाग्य है| सादर

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