कुमार संभव जी की शानदार लघुकथा- "हर दिल तिरंगा"
उस छोटे से बच्चे की खुशी का कोई पार नहीं था। बड़ी मुश्किल से उसे एक तिरंगा मिल पाया था। आज वह भी अपने घर की छत पर तिरंगा लहराएगा।
तिरंगा लेकर घर की ओर दौड़ लगाते हुए उसके दिल में वे सभी जोशीले नारे उफन-उफनकर गूँज रहे थे जो पंद्रह अगस्त- छब्बीस जनवरी को उसके स्कूल में लगाए जाते थे, या कभी भारत मैच जीत जाता तो बस्ती के चौक पर पटाखों के साथ गूँजते थे, या पिछले साल उसके दोस्त के फौजी भैया के तिरंगे में लिपट कर आने पर गूँजे थे।
वह बस दोनों हाथों से तिरंगे के कोने पकड़े खुद भी ध्वज की तरह उल्लसित लहराता हुआ घर की ओर दौड़ रहा था।
नन्हे कदम थक तो जाते ही हैं, बस्ती से जरा पहले ढाबे पर वह पानी पीने रुका।
कुछ निगाहें भी उसके झण्डे की ओर लहरा गई।
"बब्बन मास्टर का लौंडा है ना ये?" ढाबे पर बैठे एक खास दल के नेता की आवाज उठी।
"हाँ। कमबख्त मास्टर खुद तो दोजख में जाने के काम कर ही रहा है, औलाद को भी वहीं धकेल रहा है।" एक दाँत पीसता सा छुटभैया स्वर उभरा।
"मालिक के सिवा हमारी कौम का सिर कहीं और नहीं झुकेगा। मारो साले को...!" इस बार आवाज कुछ ज्यादा हौलनाक थी।
वे उठते, इससे पहले दूसरी ओर से आवाजें शुरु हो गईं।
"बब्बन मास्टर का छोकरा है ना ये?" दूसरे कोने पर बैठे एक अन्य विशेष दल के नेता की आवाज आई।
"हाँ, तभी तो बेगैरत जानबूझकर तिरंगे को उलटा लहरा रहा है।" एक आवाज उठी।
"इनकी तो ख्वाहिश ही यही है कि 'हरा' सिर पर नाचे।" फिर एक दाँत पीसता सा छुटभैया स्वर उभरा।
"देशद्रोही... गद्दार... मारो साले को!" बिलकुल पहले के जैसी हौलनाक आवाज आई।
उनमें से कोई भी कुछ कर पाता इससे पहले बीच में बैठे कुछ बस्तीवासियों ने उनकी गर्दनें दबोची और बाहर का रास्ता दिखा दिया।
"हिन्दुस्तान जिंदाबाद।" बच्चे के दिल में गूँजता नारा होंठों पर आ गया। वह फिर उसी जोश के साथ दौड़ पड़ा बस्ती के आखिरी घर पर भी तिरंगा लहराने वाला था।
"आप बाजार जा रहे हैं तो नीला रंग लेते आइयेगा।" नीले रंग की खाली शीशी पकड़ाते हुए हिना ने अपने बड़े भाई अनस को कहा।
"वो नीला रंग की बड़ी शीशी पड़ी तो फिर और रंग क्यों मंगवा रही है।" अनस ने कहा।
"हमारे स्वभाव की तरह उनदोनों रंगों में फर्क है।" हिना ने कहा।
"तो क्या हुआ! थोड़ा सफेद रंग मिला लो काम चल जाएगा।" अनस ने कहा।
"माँ-पापा के बहुत प्रयास के बाद भी हम एक जैसे कहाँ बन पा रहे हैं। बहुत कोशिश की थी। स्वाभाविक रंग नहीं बन पा रहा है।" हिना ने कहा।
"इतनी भीड़ में क्या पता चलेगा...!" अनस ने कहा।
"आप कहना चाहते हैं कि भीड़ में दो चार बच्चे उलटा झंडा पकड़ ले सकते हैं...! बदले रंग पर ज्यादा नजरें गड़ती हैं।" हिना ने कहा।
"मेरे कहने का यह अर्थ नहीं था।" अनस की आवाज में झल्लाहट थी।"
"जिस-जिस बच्चे के हाथ में अलग रंग के अशोक चक्र वाला तिरंगा जायेगा, उस-उस बच्चे का एक समूह बन जायेगा। फिर आकाश, महासागर और सार्वभौमिक सत्य को दर्शाते प्रतीक के रंग में ही समझौता मैं क्यों करूँ..!" हिना के स्वर चिन्ताग्रस्त होना बता रहे थे।
वाह रंग से रंगभेद
ReplyDeleteलघु कथा चयन के लिए बधाई ।
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