Sunday 13 May 2018

माँ-सास... बहुत बारीक सा अंतर



"सयंम समझ संस्कार समय पर साथ नहीं हो!"
"तो... ?"
"मत गलथेथरी करो कि माँ का सम्मान बरक़रार है"
"कैसे...?"
"हर स्त्री को उचित मान देकर"

Image result for बहुएं



लफ्ज़ और इश्क का हिस्सा
सास तथा बहू का किस्सा

"विभा जी आपको अपने सास बनने के अनुभव को लिखना चाहिए... जिसे पढ़कर मुझ जैसी चिंताग्रस्त कई माँ निश्चिंत होगी तो कई सास शायद अपने में सुधार कर ले..."
    मौका था माया का अपने जन्मदिन पर अपनी माँ के पास जाना... मैं भी संग गई थी... वापसी के दिन उसकी माँ कुछ उदास लगी तो मैं बोली कि "माया की खुशियों का ख्याल रखने की जिम्मेदारी अब मेरी है... मेरे बेटे से भी कोई गलती होती है तो मैं माया के संग ही खड़ी मिलूंगी..." मेरे इतना कहते माया की माँ की आँखों से गंगा-जमुना...
  कहीं बहू सास की मनपसंद नहीं तो कहीं सास बहू के स्तर की नहीं... समाज में फैले इस रूप को कई बार अनुभव में देखने को मिला... खाई को पाटने की कोशिश दोनों पाटों को थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ पहल कर करनी चाहिए... लेकिन अहम इतना , "क्यों" पर अटकी रह जाती हैं दोनों की दोनों...
    माया रोये जा रही थी... सब हक्का-बक्का... हुआ क्या... उससे पूछने की कोशिश में लगे कि किसकी किस बात से वो इतनी आहत हुई... हम सब (मैं , मेरे पति , मेरा बेटा) एक दूसरे से सवाल कर रहे थे किसने क्या कहा... थोड़ी देर के बाद उसने कहा कि, "मैं जब भी किचन में जाती हूँ हाथ धोकर जाती हूँ... माँ मुझे कुछ करने नहीं दे रही हैं , तो मुझे रोना आ गया"
मैं :- पर काम क्यों करना चाह रही हो? क्यों सोचती हो कि तुम्हारी जिम्मेदारी अभी से है चौका संभालना... तुम वर्किंग-वूमेन हो । जहां रहती हो भागमभाग की जिंदगी गुजारती हो । यहाँ आठ दिन के लिए आई हो... आराम करो और सबके साथ समय अच्छे से गुजारो... तुम्हें हिचक ना हो इसके लिए ही तो खाना बनाना सिखाई सहायिका को..." जहाँ तक हाथ धोकर चौके में जाने की बात है... "सफाई के मामले में मुझे थोड़ा पागल समझते हैं लोग..."
    चौके से उठा धुंआ और दीप से उठे धुएं के कालिख में कितना अंतर... एक से दाग तो एक से नजर ना लगे के बचाव से सुंदरी का श्रृंगार... शक और गलतफहमी का धुंआ दिल में कालिख लगाए उसके पहले चिंगारी को खत्म कर देने की कोशिश सास-बहू को मिलकर करनी चाहिए... राख में भी दबी ना रह जाये चिंगारी... इसमें अहम भूमिका होती है सास के पति व बेटे और बहू के पति व ससुर की... नट की धार है... चलना कठिन नहीं तो आसान भी नहीं... 
  एक बार कल की सुबह मेरी वापसी थी बैंगलोर से पटना... मेरी यात्रा अकेले की थी... जब तक मैं रही अपने सुविधानुसार माया-महबूब घर में मेरे साथ रहे... आज की शाम माया ऑफिस से वापिस आकर अपने कमरे में सीधे चली गई... बहुत देर हो गई वो कमरे से बाहर ही नहीं आई... और इंतजार कर मैं उसके कमरे में झांकी तो वह  पीठ ऊपर किये लेटी हुई थी, चेहरा नहीं दिखा, अंदाज़ा लगा ली मैं कि वह सो रही होगी... दिनभर व्यस्त रही होगी तो थक गई होगी... व्यस्तता के कारण ही तो आज एक बार भी फोन नहीं की नहीं तो नाश्ता कर लीं , खाना क्या बनाईं , ज्यादा काम मत कीजियेगा , कहीं घूम आइयेगा , आज ऑर्डर कर दी हूँ लंच आपका , आज शाम में घूमने चलेंगे रात में डिनर कर वापस होंगे ... दिनभर में कई फोन करती। आज भी ऑफिस जाते बोल कर गई थी , शाम में जल्दी आएंगे मूवी देखेंगे , बाहर से ही डिनर कर वापस होंगे... कल माँ चली जायेगी... मगर अब तो रात बहुत हो गई उठाना चाहिए सोच उसके पास जाकर उसके पीठ पर ज्यूँ हाथ रखी वो तो रो रही थी... मैं स्तब्ध... हुआ क्या ? बहुत पूछने पर किस्सा कुछ यूँ सामने आया...
महबूब जिस कम्पनी में काम करता था उसी कम्पनी में माया के लिए नौकरी की बात चली... इंटरव्यू हुआ सलेक्शन हुआ जॉइनिंग लेटर/ऑफर लेटर आया... माया जिस कम्पनी में पहले से काम कर रही थी उस कम्पनी में बता दी कि वो रिजाइन कर रही है... इतनी प्रक्रिया के बाद खुशी-खुशी अपने ससुर को बताने के लिए फोन की कि अब वह सुकूँ वाले पल जियेगी क्यों कि दोनों के दो कम्पनी में काम करने से यह ज्यादा परेशानी होती थी कि एक की छुट्टी तो दूसरे का ऑफिस खुला... दोनों के ऑफिस जाने का समय अलग-अलग । ससुर जी समझा दिए कि एक ऑफिस में काम करने से दोनों के निजी रिश्ते प्रभावित तो होंगे ही... प्रभावित ऑफिस के कार्यों से भी होगा... समझाने के साथ आदेश भी था कि एक ऑफिस में काम मत करो...
मैं :- तुम पापा की बातों से सहमत हो?
माया :- हाँ! माँ ! महबूब भी यह सही समझ रहे हैं...
मैं :- क्या तुम्हारे पहले वाले ऑफिस में तुम्हारा रिजाइन करना स्वीकृत कर लिया है ?
माया :- अभी नहीं माँ... कर तो लेगा ही न
मैं :- नहीं करेगा! जिस कर्मचारी को पूरा खर्च कर विदेश भेज ट्रेनिंग करवाया है उस कर्मचारी को बिना मूल-सूद वसूल किये ,कभी नहीं , किसी कीमत पर भी नहीं दूसरे कम्पनी को फायदा पहुंचाने देगा...
माया :- मैं तो इस बिंदु पर सोच ही नहीं सकी ... यू आर ग्रेट माँ
मैं :- आज का जो कीमती दिन तुम गंवा दी क्या उसे वापस कर सकती हो....

माँ सी शक्ल पाई हूँ
उनकी खूबसूरती नहीं पा सकी
हर ठिठके पल में उनको याद की
वैसे हर पल में सोचती कि वे होती तो क्या करतीं
और नकल करने से निवारण होता गया
कुछ अगर कमियां रही तो
नकल तो नकल है...

रानी बेटी माया को बताई लिखने जा रही हूँ तो


मातृदिवस की बधाई

7 comments:

  1. बहुत प्यारा संस्मरण लिखा विभा दी, सादर। मातृदिवस की शुभकामनाएँ ।

    ReplyDelete
  2. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 15/05/2018 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

    ReplyDelete
  3. उत्तम प्रस्तुति मन भावों से भर गया

    ReplyDelete
  4. मां तो मां ही होती है, सिर्फ सास इस शब्द लगने भर से कोई दो सिंग की थोडी हो जाती है, बेटी और मां मे कौन सी तकरार मन मुटाव नही होता बस घर से दूर हो जाती है बेटियां तो एक अलग का ममत्व जाग उठता है और वो ही ममत्व अगर दिल तक उतरे तो बहु के लिये भी महसूस होति है, सामंजस्य दोनो और से बिठाना होता है और वो हर रिश्ते मे करना पड़ता है ।
    विभा दी नीजि संस्मरण के माध्यम से सुंदर विचार रखे आपने।
    सादर।

    ReplyDelete
  5. बहुत सुंदर अंतर्मन को छू लिया

    ReplyDelete
  6. आदरणीय दीदी मैं भी बाईस साल से सासु माँ के स्नेहिल आंचल में हूँ | माँ ने काम सिखाया था तो सासु माँ ने मांजकर सुदक्ष गृहणी बनाया है | मेरी दादी कहती थे अपनी माँ तो नकली है तुम्हारी असली माँ तो तुम्हे ससुराल में मिलेगी | कितना सच कहा था उन्होंने !!!!!! आपका भावपूर्ण लेख मन छू गया | सादर --

    ReplyDelete

आपको कैसा लगा ... यह तो आप ही बताएगें .... !!
आपके आलोचना की बेहद जरुरत है.... ! निसंकोच लिखिए.... !!

अनुभव के क्षण : हाइकु —

मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच {म ग स म -गैर सरकारी संगठन /अन्तरराष्ट्रीय संस्था के} द्वारा आयोजित अखिल भारतीय ग्रामीण साहित्य महोत्सव (५ मार्च स...