Sunday, 4 June 2023

आग्नेयगिरि पर गौरेया (डायरी शैली)

10 अक्टूबर 1982

दशहरे की पूजा में घी-चीनी की जरुरत पड़ी तो आज पुन: माँ ने अपने अलमारी में टँगी साड़ियों के पीछे से डिब्बों को प्राप्त कर लिया। यह वही सामग्री थे जिन्हें भोग लगा जाने की जिम्मेदार हम बहनों को माना गया था।

30 जून 1985

आज माँ-पापा गर्मी की छुट्टियाँ बिताकर लौट आये। हम बहनों ने राहत की साँस ली। दोनों छोटे भाईयों के संग डेढ़-दो महीने के लिए पहाड़ों-ताल-झील के शहरों में रहने जाते हैं तो हम तीन बहनों को सौ-डेढ़ सौ रुपया दे जाते हैं। घर में थोड़ा आटा-चावल रहता है।

15 मई 1990

"सुबह हम बहनें विद्यालय-महाविद्यालय जाती हैं घर के और दोनों भाईयों के कार्य पूरा करते-करते। हम नाश्ता नहीं कर पातीं और वापसी पर कुछ नहीं मिलता। हमारे पास दो रुपया भी नहीं होता कि हम बाहर कुछ खा लें!" आज पापा से मैंने कह दिया। कहा तो पहले भी बहुत बार था।

"तुमलोग समझौता करना सीखो। तुम्हें यहीं सदा नहीं रहना है। यहाँ के लिए तुमलोग परदेशी हो।" पापा ने कहा।"

काश! परदेशी की जगह अतिथी ही मान लिया जाता।

22 फरवरी 1991

आज दीदी के संग मैंने युवा-बुजुर्गों के लिए सन्ध्या-रात्रि कोचिंग सेन्टर खोल लिया। अत्यधिक युवती-स्त्री-महिलाओं की उपस्थिति देखकर अच्छा लगा। पापा पर भार कम होगा और अब हम तीनों बहनें अपना पेट भर पायेंगीं। पापा के स्तर को देखते हुए कोई कल्पना भी नहीं करता होगा कि हमारे पेट में दाना नहीं होते!

17 नवम्बर 2000

आज माँ-पापा के घर गई तो पता चला बड़ी बुआ आई थीं। महीना दिन रहीं। कुछ महीने पहले छोटी बुआ भी आई थीं। बुआ-चाची लोग जब माँ के पास आती हैं तो महीना भर जरुर रुकती हैं। माँ के संग बाज़ार जाना। माँ से पसन्द की चीजें खरीदवा लेना। रोज मीट-मछली बनवाना बहुत सरल काम है। ननद-भाभी की मस्त जोड़ी। बुआ-चाची को हम बहनों के अंग वस्त्रों के छेद नहीं दिखलाई देते। पापा की दूसरी पत्नी को खुश रखना भली-भाँति जानती हैं।

23 अप्रैल 2008

आज छोटी की भी शादी हो गयी। दीदी की शादी 2004 में हो चुकी है। ससुराल से माँगकर ले गयी बहनें मायके के हिस्से का सुख पा रही हैं। दीदी और छोटी दोनों बहनों की जिम्मेदारी अच्छे से निभा लेने का सुकून है। आसानी से दोनों का पेट भर रहा है

बस! अब अपनी नौकरी से केवल अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी है। शादी में आए नकारा चचेरे भाईयों ने संग रहने की इच्छा प्रकट की। सोचना होगा क्या किया जाए। माँ के दोनों लाड़ले फ़ुर्र हो चुके हैं। जबसे संघ लोक सेवा आयोग में मेरी नौकरी लगी है तबसे मैं पूजनीय हो गयी हूँ। क्या सच में दया का सबसे छोटा कार्य सबसे बड़े इरादे से अधिक मूल्यवान है!

6 comments:

  1. ईजा (मां) कभी कभी दे देती थी छुपा कर दो रुपये | बहुत खर्च करे हैं | हा हा | कुछ एसा ही समय था | बड़ी पांच परदेश भेज दी गयी थी| अकेले थे चिड़िया के परों के नीचे छुपे रहे फुर्र नहीं हो पाए|

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  2. जबसे संघ लोक सेवा आयोग में मेरी नौकरी लगी है तबसे मैं पूजनीय हो गयी हूँ। क्या सच में दया का सबसे छोटा कार्य सबसे बड़े इरादे से अधिक मूल्यवान है!
    काफी से अधिक सुंदर प्रस्तुति
    सादर वंदे

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  3. पापा की दूसरी पत्नी को खुश रखना भली-भाँति जानती हैं।
    कहते हैं सौतेली माँ के साथ पिता भी सौतेला सा हो जाता है।
    बहुत ही हृदयस्पर्शी...

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  4. मार्मिक कथा। सौतेली माँ के साथ पिता निस्सन्देह सौतेले हो जाते हैं।

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