Tuesday, 15 November 2016

वजूद


घर मेरा है
चलेगी मर्जी मेरी
स्व का सोचना
छी खुदगर्जी तेरी
पुरातन ख्याल
वजूद पर सवाल
दिल को जलाता
सकूं मिटा जाता
उधेड़े पत्ती पत्ती
ज्ञान अनावर्त्ती
सत झंझकोरता
ज्ञान हिलोरता
बिना स्व बिखेरे
धन्यवाद बोल तेरे
महक आती
 नर्गिसी फूलों
चहक जाती
धमक शूलों

4 comments:

  1. वाह! सुंदर रचना ।

    ReplyDelete
  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17.11.2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2529 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  3. सुंदर प्रस्तुति

    ReplyDelete
  4. सुंदर प्रस्तुति

    ReplyDelete

आपको कैसा लगा ... यह तो आप ही बताएगें .... !!
आपके आलोचना की बेहद जरुरत है.... ! निसंकोच लिखिए.... !!

आषाढ़ का एक दिन

“बुधौल लाने के लिए आपको हमारी ही टोली मिली थी, सब की सब गऊ, हमें बुद्धू बनाने की क्या आवश्यकता थी…?”  “यहाँ आपको क्या पसन्द नहीं आया?”  “अच्...