Tuesday, 24 March 2020

यादें


ज्यूँ-ज्यूँ साहित्य व समाज में सक्रियता बढ़ रही थी त्यों-त्यों समय की कमी होती जा रही थी... किसी कार्यक्रम के बाद घर लौटती तो सुबह से शाम तक के झूठे बर्त्तनों के ढ़ेर को धोना और रात्रि भोजन बनाना थोड़ा तो कठिन लगने लगा था.. हर बार सोचती अगले महीने से सहायिका को बर्त्तन धोने के लिए कह दूँगी.. लेकिन समय बीतता रहा और मेरा मन काबू में रहा.. अन्य घरों में सहायिका का
–हड़बड़ी में बर्त्तन धोना देख.. झूठे बर्त्तन में ही विम लगाकर एक साथ ही रखकर धो देना.. मैं तो पहले झूठा हटाकर खंगालती हूँ , फिर एक-एक कर सर्फ डिटॉल के घोल से धोती हूँ फिर खंगालती हूँ फिर विम लगा कर खंगालती हूँ..
–बिना बताए नहीं आना.. यानी नागा है तो धोना तो खुद से पड़ेगा ही

भारत में मैं होती तो भी सहायिका को छुट्टी देकर आनन्द नहीं उठा पाती.. कुछ सुख है जिससे मैं वंचित अपने साइको होने की वजह से हूँ..
जो खुद से करते हैं उनका सन्तोष उन सा ही कोई समझ सकता है
–किसी ने मुझसे कहा आपका जो स्टेटस है उस हिसाब से आपका स्टैंडर्ड नहीं है
–विभा के धोवल बर्त्तन आँख मूंद कईके उठावल जा सकेला -ये अवार्ड भी मेरे हिस्से रहा सासू जी का कहा.. वे छठ करती थीं या कोई पर्व करती तो मुझपर भरोसा करती थीं..

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