बस रोटी के भाप,
उबले चाय-दूध के ताप के
जलन से ही अंदाजा है..
नारी का इंसान होना
उतने जलन से ज्यादा है...
प्रत्येक के हिस्से
आ ही जाते हैं
कई किस्से
अपने लिए जीने की सोच ले
खुद ही आत्मग्लानि में
जीने लगती है
खुद ही आत्मग्लानि में
जीने लगती है
तन्हा कोने बैठा में
बिसरा दी जाती है
बिसरा दी जाती है
नहीं पसंद आती
किसी को जोशीली नारी
–ब्लॉग से फेसबुक और संस्था में मैं सवाल की थी...
2020 ई० में "थप्पड़" जैसी फ़िल्म बन रही है
और चर्चित हो रही आखिर क्यों ?
बनानी ही थी फ़िल्म तो बनाते कि उस एक थप्पड़ के तुरन्त बाद खींच कर पति के दोनों गालों पर उसी अंदाज़ में, उसी समय, उसी समाज के सामने दनादन थप्पड़ देने चाहिए थे.. समझाती माँ को, समझाती सास को, समझाता भाई को, सबको थप्पड़ देना चाहिए था और रहती उसी छत के नीचे शान से.... तलाक के बाद औरत को पब्लिक पोपर्टी समझने वाले पुरुषों को झेलने से तो जरूर अच्छा होता होगा। अंत जो दिखलाया गया है...असली कहानी तो वहीं से शुरू होगी...
उस अंत के बाद के डर से ही आज भी कई स्त्रियाँ रात पिटी जाती हैं और दूसरे दिन सुबह की चाय से रात खाने तक मुस्कुराने की मुखौटे में दर्द छुपाये रहती हैं... और पूरी जिन्दगी काट लेती है, इस उम्मीद में कि कभी तो पौ फटेगी...
उस अंत के बाद के डर से ही आज भी कई स्त्रियाँ रात पिटी जाती हैं और दूसरे दिन सुबह की चाय से रात खाने तक मुस्कुराने की मुखौटे में दर्द छुपाये रहती हैं... और पूरी जिन्दगी काट लेती है, इस उम्मीद में कि कभी तो पौ फटेगी...
नाजायज़ रिश्ता... महिलाओं की कोई ऐसी मजबूरी नहीं कि वो ऐसे रिश्ते बनाये और जिये... चार घर बर्त्तन चौका कर ले तो पेट और छत की व्यवस्था सम्मान से कर ले... लेकिन उसे तो चयन करना शोहरत और है कहलाना रखैल,दूसरी औरत...
"जो है उस में खुश हैं।" कहने वाली नारी ने
ReplyDeleteनीति से लड़ना नहीं सीखा अभी तक।
फिल्में शायद दर्पण का काम करती है
किसी सोच को बढ़ावा नहीं देती।
बाकी समझने वाले पर निर्भर करती है।
बहुत खूब।
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