01.हिमस्खलन–
कोने से फटी चिट्ठी
डाकिया बाँटे
02.चैता के संग
ध्वनित जंतसार-
चौका चौपाल
03.खण्डों में बँटे
ओस में गीले पत्ते
मध्याह्न तम
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छोटी सी ही थी
तो किसी ने कहा
'अरे! बड़ी चुलबुली है
सोती कब है?
जरा नहीं थकती है!"
थोड़ी ही बड़ी हुई
तो किसी ने कहा
'अरे! इतनी चहकती परी
रेगिस्तान में जल की बूँदें सी'
और थोड़ी बड़ी हुई
तो 'सायरा बानो' सी लगती हो
चुहलबाजी में जी डरता है
उससे आगे थोड़ी और बड़ी हुई
तो घमंडी, हिटलर, खड़ूस कहने लगे
जानते हो क्यों ?
मनमानी नहीं चलने लगी थी
खुद से प्यार होना खटकने लगी थी ...
अपने अंगों की सुरक्षा
हर जीव करता है
तभी तो हिमपात के पहले
पेड़ों से पत्ता झरता है।
शाखाओं पर जो टिक जाता हिम
गलन पैदा करता हानिकारक
अंबरारंभ सा नजरों का भरम
जलन पैदा करता हानिकारक
बहुत सुंदर
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और प्रेरक रचना।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 10 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना..
ReplyDeleteसादर प्रणाम
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.02.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार आपका
Deleteवाह!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
सार्थक व सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteबहुत सटीक प्रस्तुति। जीवन मे ऐसा ही होता है।
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