प्रियतम पावेल !
मधुर याद...
राजी खुशी के साथ मन की बैचेनियों को बता रही हूँ। जबसे पता चला है कि आपका निर्णय राजनीति को छोड़ कर नौकरी सरकारी गुलामी करने का हुआ है तब से व्यथित हूँ। जनता के बीच रह कर जनता के लिए जीने का इरादा इतना कमजोर क्यों हुआ! सगुन उठाने के समय भैया से आपका सवाल था 'आपको पता है न मुझे नौकरी नहीं करनी है...? आपकी बहन के सुख सुविधा का ख्याल उसे खुद की कमाई से करनी होगी!'
बड़े भैया के संग पापा भी थे जो बेहद चिंतित हो गये थे। तब बड़े भैया ने उन्हें समझाते हुए कहा था," चिन्ता नहीं कीजिये, अभी बाघ के मुँह में खून नहीं लगा है। राजनीत का भूत उतर जायेगा बहुत जल्द।
क्या ऐसा ही कुछ हुआ जो आपका विचार बदल गया? अभी-अभी तो चंद दिन गुजरे.... सरस्वती पूजा को शादी हुई और प्यार दिवस पर ऐसे सौगात की उम्मीद तो न थी। वेणी, बेड़ी नहीं हो सकती...। अगर ऐसा हुआ होता तो रामायण नहीं लिखा गया होता!"
आपकी पुराने विचारों पर वापसी की प्रतीक्षा में सुख - दुःख की साझेदार
आपकी पगली
विभा रानी श्रीवास्तव, पटना
जी🙏
ReplyDeleteया तो
अंधेरी रात का सौभाग्य
या
अंधेरेपन का घाव
शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार
ReplyDeleteबड़े यूँ ही थोड़े न कहते हैं. .अनुभव का पिटारा .।
ReplyDeleteवाकई अंधेरी रात का सौभाग्य
तमिस्राक्षत !
लाजवाब 👌👌🙏🙏