परिवार ,समाज की एक इकाई अंग है ..... परिवार , हर इन्सान की जन्म-से मृत्यु तक की जरुरत है .... जैसा परिवार ,वैसा उस परिवार में रहने वाले इन्सान का व्यक्तित्व होता है .....
घर में दिया न जलाया और मंदिर में दिया जलाने पहुँच गए तो वो कुबूल नहीं होता है ...
परिवार की ही बात करनी है ..... क्यूँ ना मैं अपने मैके के परिवार की ही बात करूँ ....
मेरे दादा दो भाई थे .... मेरे दादा अपने भाई से बहुत प्यार करते थे ....
मेरी दादी को 14 - 15 बच्चें थे .... उन बच्चों के पालनपोषण के साथ मेरी दादी , मेरे छोटे दादा का भी ख्याल रखती थीं .... उन बच्चों के बच्चे और उन बच्चों के बच्चे के बच्चे मिला कर हमलोग करीब 250 - 300 सदस्य हैं ....
हर साल घर में ननद-भौजाई ,देवरानी-जेठानी को मिला कर 5-6 बच्चे तो होते ही थे ....
सोचिये ... सोचिये .... जब सब बच्चे एक जगह एक साथ रोते-गाते होंगे तो कैसा माहौल होता होगा (*_*) ....
जब मेरे बड़े बाबू जी की शादी हुई .... तो मेरी बड़ी माँ को डोली से उतरते - उतरते देवर-ननद की जिम्मेदारी मिली .... जिसे उन्होने बखूबी निभाया .... उस जमाने में सास - बहू , माँ - बेटी ,ननद-भौजाई सबको एक साथ ही बच्चे होते थे .... वे बड़े बाबूजी के साथ नौकरी पर भी गईं तो मेरे चाचा - मेरे पापा उनके साथ थे .... चाचा पढ़ने के लिए और मेरे पापा नौकरी करने के लिए ....
जब मेरी माँ उस घर में आयीं तो उन्होने मेरी बड़ी माँ की जिम्मेदार बांटी ....
मेरी माँ ....
मेरी माँ का गला बहुत ही सुरीला था .... जब वे गाती थी तो सब मंत्र-मुग्ध हो जाते थे .....
वे 30-40 आदमी का (मैं तो 5 रोटी सेकने में आज-कल हाफती हूँ ....लेकिन उनसे मिला संस्कार ही था कि मैं अपने सास-ससुर का साथ दे सकी ) खाना हँसते हुये बना लेती थी .....
जब चाची आई तो उनको अपनी जेठानियों का माँ जैसा ही प्यार मिला .... मेरी चाची ,मेरी चचेरी दीदी से भी छोटी थीं .... दीदी की शादी हो चुकी थी .... और उन्हे एक बेटा भी था ......
हम बच्चों को शादी -ब्याह ,तीज-त्यौहार का बहुत इंतजार रहता था .... बहुत मस्ती-मौज करने का मौका तभी मिलता था .... जब हम सब जुटते तो हमारा खाना ,परात में निकलता और सब बच्चे एक साथ खाना खाते .... खिलाने के लिए माँ-चाची-मौसी -मामी बैठती .... तो वे खिला भी लेती .... खुद खा भी लेती .... वो प्यार झलकता कि पेट के साथ आत्मा भी तृप्त हो जाती .... एक बार मेरे बड़े भैया और अजित भैया (बड़े बाबूजी के पुत्र जो बड़े भैया के ही हम-उम्र थे) मेरे दादा से बोले कि हम भी हाट जाएगें(उस समय सप्ताहिक हाट लगता था ,जिससे जरूरत के समान खरीदा जाता था .... दादा किसी को हाट भेज रहे थे ..... मेरे दादा रुपया को ढेबुया कहते थे या उस समय ढेबुया ,कहा ही जाता होगा ) हमें भी ढेबुया दीजिये .... दादा पुछे क्या लाओगे ?? ..... भैया बोले :- माँ बोल रही थी .... आलू खत्म हो गया है .... आलू लाना है .... इसलिए हम आलू लाने जाएगें .... दादा बोले :- घर में बहुत आलू है ..... तुम बच्चे हो हाट नहीं जाओगे .... लेकिन दोनों भैया को , आलू माँ के लिए लानी थी .... बहुत सोच-विचार कर दोनों भाई झोला लिए और घर के पीछे खेत में गए .... खेत में उसी दिन आलू का बीज लगाया गया था .... उस आलू को निकाल कर ........ झोला में भर कर .... दोनों भाई उठा कर घर लाये और माँ को दिये .... उसी दिन बीज़ का आलू खत्म हुआ था .... माँ उसी आलू की बात की थी कि खत्म हो गया ..... अब दोनों भैया ठहरे अबोध .... उन्हे तो माँ के लिए आलू लाना था इसलिए वे ले आए (*_*) .......
बच्चे बड़े होते गए सखायें देश-विदेश में फैलती गई .....
लेकिन नीव बहुत मजबूत बना था प्यार संवेदना से बनाया गया था .... आज भी जब घर पर कोई शादी या त्योहार में सब जुटते हैं तो एक साथ होते हैं .... आज भी खेती एक है .... जर्जर घर होने पर नया घर बना तो एक ही बना और वहीँ पर बना ....
मेरे मैके का जर्जर घर होने पर नया घर
मेरे भाई और मेरी भतीजी
मेरे मैके का जर्जर घर होने पर नया घर
मेरे भाई और मेरी भतीजी
जी लूँ .... तब कुछ कहने की हिमाकत करूँ ....
परिवार नव चेतना दे
परिवार नूतन शरीर में नव श्वास दे
परिवार खुशियों भरा संसार दे
परिवार आनंद का समुंदर उपहार दे
परिवार दुनिया की अंधी दौड़ में कुछ दिल्लगी के पल दे
परिवार सबको ही अनुपम प्यार दे
चढ़ें जब नव कर्म-रथ पर
परिवार बुद्धि को प्रखर कर दे
परिवार हर चिरंतन साधना पर सबको अटल विश्वास दे
इस अवनि तल पर उतरकर, अब कर दे रौशन ये फिज़ा
परिवार उल्लास ही उल्लास दे चीरती अज्ञान तम
परिवार न कल्पना रूकने देता है,
परिवार नहीं रुकने देता है उसमें से उगता सूरज
परिवार से ही समाज का निर्माण होता है ............
'परिवार' की अच्छी परिभाषा डी गयी है !
ReplyDeleteparivaar hi sab kuchh...
ReplyDeleteparivar me hi aatma basta hai :)
rukna bhi nahi chahiye kalpnaaon ka suraj...parivaar ka rath bahut sashkt hota hai ghiskar bhi
ReplyDeleteअच्छा लगा आंटी
ReplyDeleteसादर
सार्थक विचार .... सहमत हूँ ....
ReplyDeletesahi mey didi ......bina pariwar kuch nahi...sanskar wahin say milte hain....
ReplyDeleteपरिवार से ही सोच का निर्माण होता है.. सार्थक प्रस्तुति !!
ReplyDeleteपरिवार से ही सोच का निर्माण होता है.. सार्थक प्रस्तुति !!
ReplyDeleteचाची जी परिवार का सुंदर वर्णन |अपने भारत का परिवार ऐसा ही होता है |
ReplyDeleteपरिवार जिन्दगी का सार है बहुत सुन्दर् विभा॥
ReplyDeleteparivar ko agar vrihat parivar kee drishti se dekha jaay to sampurn vishva ek parivar hai lekin ham rakt sambandhon men hi prem aur vishvas ke sath jee len to aaj bhi ye sanstha bahut maayane rakhati hai.
ReplyDeletesundar varnan kiya aabhar !
अच्छा लगा परिवार को जानना !
ReplyDeleteयह प्रेम बना रहे , बहुत शुभकामनायें !
हमारा परिवार ही हमारे जीवन का संबल है... बेहतरीन भाव....
ReplyDeleteकल की ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन पर मेरी पहली बुलेटिन में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है। सादर आभार।।
ReplyDeleteबहुत अच्छे से परिवार की महत्ता को उजागर किया है आपने.
ReplyDeleteअब कहाँ रहे ऐसे परिवार .... खूबसूरती से आपने परिवार से परिचय कराया ... आभार
ReplyDeleteपरिवार से एक सम्पूर्णता का आभास होता है और शुकुन भी मिलता है. आजकल इस परिभाषा के अनुरूप परिवार एक विलुप्त हो रही अभ्लाषा भर रह गई है.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति.
वाह चाची ...सुंदर परिवार
ReplyDeleteआपने लिखा....हमने पढ़ा
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 16/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!
बहुत सुन्दर...आशा है कि परिवार का काफ़िला यूँ ही चलता रहे...
ReplyDeleteab vo parivar kaha sab ki duniya chote gharo me simat gayi hai ..
ReplyDeleteसंगठित परिवार का अपना महत्व होता है
ReplyDeleteअब तो एकल परिवार में भी कलह बनी रहती है
संगठित परिवार से ही संस्कार मिलते हैं
नयी पीढ़ी को परिवार स्नेह और संस्कार समझाती
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई
सच है परिवार के बिना सकल जग सूना
ReplyDeleteमनाग्ल कामनाएं आपको और सुंदर कलम को !
ReplyDeleteparivar ke vina sab adhura...bahut badhia..
ReplyDelete