"कुछ लोग, जरा मन का नहीं हुआ या कोई बात पसन्द नहीं आयी तो संबंधित के सात पुश्त को अपशब्दों-गालियों से विभूषित करने लगते हैं। ऐसे लोग कोबरा से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं...,"
"ठीक कहा। उनसे उलझने से ज्यादा अच्छा है पत्थरों पर दूब उगा लेना।"
"अरे! कहीं भला पत्थरों पर दूब उगायी जा सकती है...?"
"हथेली पर सरसों उगाने इतना असम्भव बात नहीं है। बदलते ऋतु के संग पत्थरों पर धूल-मिट्टी जमा होते जाते और उनमें दूब उगायी जाती है..."
"बदलते ऋतु का असर रिश्वत देने वालों पर क्यों नहीं होता है। वे, भ्रष्टाचरण वाले रिश्वतखोर से कम दोषी नहीं होते हैं।"
" मन की अपनी विचित्र एक चेष्टा है, इसे चाहिये वही जो क्षितिज के पार मिलता है...!"
साहिब जी तो पत्थरों में गन्ने तक उगा दे रहे दूब तो बहुत गरीब होती है| :)
ReplyDelete😀🙏
Deleteहार्दिक आभार आपका
ReplyDelete" मन की अपनी विचित्र एक चेष्टा है, इसे चाहिये वही जो क्षितिज के पार मिलता है...!"
ReplyDeleteसच हैं,,,,, . दूर के ढोल सुहावने