वसंत के मोहक
वातावरण में ,
धरती हंसती ,
खेलती जवान हुई ,
ग्रीष्म की आहट के
साथ-साथ धरा का
यौवन तपना शुरू हुआ ,
जेठ का महीना
जलाता-तड़पाता
उर्वर एवं
उपजाऊ बना जाता ,
बादल आषाढ़ का
उमड़ता - घुमड़ता
प्यार जता जाता ,
प्रकृति के सारे
बंधनों को तोड़ता ,
पृथ्वी को सुहागन
बना जाता ....
नए - नए
कोपलों का
इन्तजार होता ....
मॉनसून जब
धरा का
आलिंगन
करने आता ....
लिखा न गज्जब :) भाव जब हो तो कौन रुकेगा कौन रोकेगा
ReplyDeleteआपकी छत्रछाया जिसे मिल जाए वो तो कुछ न कुछ लिख ही लेगा.... कहते हैं, न पारस के संपर्क में आते पत्थर भी सोना हो जाता है .... सोना न सही कोई धातु बनने का प्रयास जारी है .... !!
Deleteबेहतरीन सुंदर रचना,,,,, ,
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: ब्याह रचाने के लिये,,,,,
बहुत खूब आंटी!
ReplyDeleteसादर
वाह बहुत खूब दीदी ...
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - आज का दिन , 'बिस्मिल' और हम - ब्लॉग बुलेटिन