आज लगता है , काश मुझे भी होती , एक धी .....
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आ जा ,सुन ल जा बात खरी-खरी(स्पष्ट)
ना बताइब ,ना समझाइब बारी-बारी(बार-बार)
बहुत चला चु क ल जा जुबान के आरी(लकड़ी काटने वाला)
अब आ गइल बा ओकर पारी
अपने पे आगइल त पड़ी भारी
शर्मों - हया से संकुचल नारी
पा जाये मान - सम्मान त हो जाए वारीफेरी(निछावर)
ना समझ ओकरा क अबला-बेचारी
संगी संयमित ना रहे त मार पिला-पिला वारि(पानी)
ना बुझ बेटी के नाजुक गिरी(किसी बीज के अन्दर का गुदा)
उ लाँघ चूकल बड़हन(ऐवरेस्ट) गिरि(पहाड़)
कोई छूये ना , ओकर आँचल के किनारी
ना त भोंक दी , तोरा छाती पे कटारी
हो चुकल अरिघ्न(शत्रु का नाश करने वाली) ना बना व जा अरि
ना बन के अब रह सके दुधारी
ओकरा पास बा कलम-बेलन दुधारी
रच शौर्य गाथा ना गा चाँचरी( वह गाना जो वसंत में गाया जाता है )
बहुत बन के रह चु क ल गठरी-कुररी(मादा-टिटहरी)
मेहनत के रंग दिखला बन चातुरी(चतुराई,धूर्तता)
खूब कहिन
ReplyDeleteसिखा दो न दीदी हमें भी
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति,,,विभाजी,,,,
ReplyDeleterecent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
सुंदर कविता ...आंचलिक शब्द प्रभावी बना रहे है
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.. सुंदर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteकोई छूये ना , ओकर आँचल के किनारी
ReplyDeleteना त भोंक दी , तोरा छाती पे कटारी
इसी की ज़रुरत है ..बहुत सुन्दर लगी कविता... आंचलिक रस ने इसे और भी प्यारा बना दिया :)
आंचलिक भाषा या बोली, इसकी मिठास ही अलग है ,उसका स्वाद इसमें आया .
ReplyDeleteNew post बिल पास हो गया
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