सूर्योदयास्त–
पहाड़ों की सड़कें
बेवा मांग सी।
तब नहीं जानती थी कि पृथ्वी इतनी नाराज होगी... सूर्योदय व सूर्यास्त को सूर्योदयास्त करने की कोशिश भर थी यह तो उदय का अस्त हो गया ... हर गली हर मोहल्ले की सड़कों को वीरान कर डाला।
स्वर्ग और नर्क धरा पर भोगना तय है यह तो सदा सुनने को मिलता था... आज अनुभव में भी है.. यह अलग बात है कि गेंहू के साथ घुन का पीसना चरितार्थ हो रहा
पचास साल पूरे हो गए धरा दिवस मनाते हुए, जिनकी चेतना नहीं जगनी थी नहीं जगी.. जो जगे थे वे भी कट रहे हैं...
पतंगों सी जिंदगी हो गई है
वैश्विक युद्ध/कोरोना काल–
पतंगों की दूरियाँ
बित्तों से नापे।
लॉकडाउन–
शेफ बैरा का ठट्ठा
दादी के घर।
सभी तो माँ मानते हैं न तुझे,
चरण-रज लेते हैं।
हम भी अपने बच्चों की
गलतियों पर उन्हें
कुछ देर के लिए ही
एकांत की सजा देते हैं।
बच्चों की खुशियों के लिए
फिर माँ कितने जतन करती
देख जिन्हें नहीं चेतना
वे अब भी नहीं चेत रहे
और ना आगे चेतेंगे।
कोरोना का रोना-धोना
चाहे जितना हो ले
मनु के अलावे
सभी बहुत खुश हैं
देख आजतक
विभीषण का नाम
नहीं रखा समाज ने...
रावण मिल जाएगा।
राजतंत्र को बस पढ़ा सुना ही है...
देखा लोकतंत्र है जिसमें
जनता को मालिक होना चाहिए और
चयनित नेता जनता के सेवक समझे जाते तो
शायद स्थिति भिन्न होने की उम्मीद होती
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3680 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
हार्दिक आभार आपका
Deleteसदा स्वस्थ्य रहें व दीर्घायु हों
पृथ्वी दिवस के पचास साल पूरे होने पर अपने विचारों को मुझे मेल कर दें