"ये क्या है शशांक! सब कुशल है न? तुम सारा खाना ज्यों का त्यों छोड़ दिये हो, मानों थाली के भोजन में हाथ डाले ही नहीं हो। ऐसा क्यों?" रात्रि भोजन के समय बिना खाना खत्म किये उठते हुए शशांक को देखकर उसकी माँ ने थोड़े चिंतित स्वर में पूछा।
"खाया नहीं गया, तुम जानती ही हो, थाली में भोजन छोड़ना मुझे बिलकुल पसंद नहीं।" शशांक ने कहा।
"यही तो मैंने भी सवाल किया माँ! तो मुझे कहा कि भोजन बेस्वाद है। ना जाने आज क्या हो गया? इतने सालों में पहली बार खाना ठीक से नहीं खाया जबकि, अधकच्ची, जली जैसी भी बनाऊँ ये बिना शिकायत के भोजन कर लेते थे।" सदा उल्लासित रहने वाली शशांक की पत्नी का स्वर वेदनामय था।
"हमारी शादी का और तुम्हारी नौकरी का साल एक है।प्रशिक्षण काल कितने वर्षों तक चलाया जा सकता...? विशिष्ट प्रशिक्षण के लिए तुम चयनित होकर भारत से लंदन गई। मैं विदेश आ गया था तुम मेरे साथ रहने के लिए अपनी कम्पनी में पद-त्याग करने गई तो तुम्हें मेरे साथ के लिएविदेश भेज दिया गया। हर स्तर पर तुम्हें हथेलियों पर रखा गया। उसके लिए चाम तो आधार नहीं न बना होगा?
"हथेली पर सरसों उगाना ही होता है । चाहे कामयाब पेशवर बनो या चाहे अन्नपूर्णा बनो।" शशांक की बातों के समर्थन में उसकी माँ का स्वर गुंजायमान था।
समझ जाने की मुद्रा में गर्दन हिलाती शशांक की पत्नी प्रसन्नता प्रकट कर रही थी।
श्रम का कोई कोई शार्टकट नहीं होता है
ReplyDeleteबिना श्रम सफलता का स्वाद आनंदित नहीं कर सकता।
हथेलियों में सरसों उगाना ही एकमात्र विकल्प है।
सुंदर लघुकथा।
प्रणाम दी।
सस्नेहाशीष संग शुक्रिया छूटकी
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