हाथ पसारे अम्मा आँचल के छोर से सुहाग का धागा माँग रही थी। धोबिन काकी का मुँह सीधा ही नहीं हो रहा था और सीधा हो भी कैसे..! कुछ दिनों पहले दूसरे टोला में शादी थी और दादी ने धोबिन काकी और उनकी बहू-बेटे, पोता-पोती को अपने घर के पोशाक में देखकर लताड़ लगायीं तो लगायीं अपने घर का दरवाजा बन्द कर दी थीं। "यह भी कोई बात हुई, हमारे खेत भी लो धुलाई के अनाज भी लो और धुलने गए कपड़ों को पहन भी लो।" दादी के गुस्से का बादल फट पड़ा था।
बड़ी अम्मा रंग बिरंगी चिड़ियों की लड़ी से पिटारा भर रही थीं जिसे उन्होंने दर्जी काका से कतरनें लाकर बनायी थीं। "छ महीने से लेकर तीन साल के बच्चे की पोशाक तुम हमारे कपड़ों से बना लेते हो!" जोर की डाँट और खेत वापस लेने की धमकी भी दे आई थीं।
बुआ धान का लावा भुनने के लिए नेग में झुमका ठानी थीं लेकिन गोंड़ दादी के कान पर जूं नहीं रेंग रहा था। उन्हें भी अपने गोंसार उजाड़े जाने का मलाल था जो दादा के अमराई में था। अमराई की शोभा कटहल, अड़हड़-बड़हड़ भी बढ़ाते थे।
चिकित्सक बन्नी के होने वाले ससुराल की मांगों को पूरा करने के लिए बाबा उन जमीनों के कागजात के बदले लाखों रुपये ले ही रहे थे कि चिकित्सक बन्ना ने रोक दिया। लू दोपहरी में धोरे के दौरे में बादल उमड़ रहे थे।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२५ -०२ -२०२२ ) को
'खलिश मन की ..'(चर्चा अंक-४३५१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार आपका
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteपरिवर्तन के कितने रंग...
ReplyDeleteसमय तो बदलता ही है ।
ReplyDeleteबहुत कुछ कहती सराहनीय लघुकथा ।
विविध मंथन है इस छोटी कहानी में मनोज वैज्ञानिक कथा।
ReplyDeleteसुंदर।