-ट्रिन-ट्रिन-ट्रिन-
"हैल्लो!"
"क्या कर रही थी?"
"कुछ सोच रही थी.. तुम जानना चाहेगी क्या तो सुनो! कहानी, कथा, गीत, कविता में स्त्रियों को ही महान क्यों दर्शाया जाता है और पाठक भी वैसे ही अंत पर वाहवाही करते हैं.. आखिर क्यों ?"
"लगता है , आज भी तुम कुछ ऐसी अंत वाली रचना पढ़ ली! अच्छा बताओ अंत क्या था उस रचना की?"
"पति अपने दोस्त की विधवा से सम्बंध बना लेता है और पत्नी अपने पति को माफ कर उस विधवा को ही दोषी ठहरा लेती है.. लेखक ऐसी कहानी क्यों नहीं लिखता जिसमें पत्नी के कदम बहके हों और पति माफ कर महान बन जाता है..?"
"जो कहानी तुम पढ़ना चाह रही हो वैसा समाज में खुले तौर पर होने लगा है। बस साहित्य का हिस्सा बनना बाकी है। वह भी कुछ वर्षों में होने लगेगा। अच्छा चलो तुम ऐसी लघुकथा लिख लोऔर किसी बड़े साहित्यकार को टैग कर..!"
"अरे! छोटे लोग बड़े लोग को टैग नहीं करते हैं..!"
"तुम और छोटे लोग? चीनी हो क्या? अच्छा मूंगफली का चिनिया बादाम नाम क्यों पड़ा होगा...,"
फिज़ा में मिश्रित खिलखिलाहट का शोर गूँजने लगा...
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-10-2020) को "बिन आँखों के जग सूना है" (चर्चा अंक-3851) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
"जो कहानी तुम पढ़ना चाह रही हो वैसा समाज में खुले तौर पर होने लगा है। बस साहित्य का हिस्सा बनना बाकी है...
ReplyDeleteबहुत सटीक....।और साहित्य को सच से परहेज क्यों...
बेहतरीन लघुकथा।
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत खूब एक अलहदा लेखन विशेष आकर्षक लिए।
ReplyDeleteसाधुवाद।