अपनी शादी के बाद पापा की लिखी चिट्ठियों को पाने का सौभाग्य मिला। जन्म से शादी तक साथ ही रहना हुआ था हमारा। लगभग छः महीने मैं अपने दादा-दादी के संग रही थी जब मैं कक्षा तीन में पढ़ती थी। उस दौरान मुझे सम्बोधित करते हुए कोई पत्र आया हो यह मेरे स्मरण में नहीं है।
चिट्ठियों में कभी भोजपुरी से शुरुआत की गयी होती तो मध्य से हिन्दी में बातें लिखी होती और कभी हिन्दी से शुरुआत की गयी होती तो मध्य से भोजपुरी में बातें लिखी होती... ।
कौतूहल और बेसब्री से उनके लिखे पत्र की मैं प्रतीक्षारत रहती। उनसे ही मैंने जाना
सिखाये उषा-प्रत्युषा का संगी,
सितारें और ज्योत्स्ना का संगी,
फूलों का राजा कांटों का संगी,
जुगनू संग-साथ बाती का संगी।
सहायक होता है पुष्टिदग्धयत्न,
जिज्ञासा का है प्रतिफलातिप्रश्न।
ठान ले ना तू तिनका व गुरुघ्न
निशा में भोर का कर आवाह्न।
सुख-दुःख की कथा गुथता चल,
मन में ॐ की माला फेरता चल,
क्या तेरा-मेरा गीता बाँटता चल,
तू भी समय के साथ बहता चल।
क्या तेरा-मेरा गीता बाँटता चल,
ReplyDeleteतू भी समय के साथ बहता चल।
यही अन्तिम सत्य है।
वन्दन... हार्दिक आभार आपका
Deleteसचमुच पत्रों की बात ही अलग थी पिता के द्वारा पत्रों में दिया ज्ञान आज भी मार्गदर्शन करता है...।
ReplyDeleteलाजवाब सृजन।
पिता का स्नेह भरा ज्ञान कोई दे ही नहीं सकता,वो भी पत्रों द्वारा । मन को छूती हुई रचना ।
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