प्रश्न :– पुस्तकें पढ़ना क्यों अच्छा लगता है?
उत्तर :–
बस अपना ही ग़म देखा है
हमने कितना कम देखा है।
खुली आँखों से काले कोट पहने कोर्ट में बहस करते हुए स्वयं को सपने में देखना शुरू किया। जब से होश सम्भाला पुस्तकों के बीच में ही मेरा रहना हुआ। मुझसे तीन बड़े और एक छोटा भाई था। उनके पास जो पुस्तकें क्रमानुसार नन्दन, चम्पक, बाल भारती, धर्मयुग, सारिका, गुलशन नन्दा, रानू, राजहंस, शिवानी, प्रेमचन्द इत्यादि आतीं, कक्षा की पुस्तकों के संग उन्हें पढ़ती रही। बी.एड –वकालत की पढ़ाई पूर्ण करते-बढ़ते उम्र के साथ मनोरमा, वनिता, गृहशोभा, सरिता, कल्याण, कादम्बनी, पढ़ना शुरू किया। अल्पायु में मेरे मझले भाई और मेरी माँ का साथ छूट जाने के बाद मैं अपने को पुस्तकों में डुबो दी। पुस्तकें मेरी सखी बनीं। तन्हा नहीं थी लेकिन तन्हाई थी...। नारी सुलभ समस्याओं का हल, आदर्श बेटी, आदर्श बहन, आदर्श पत्नी, आदर्श बहू की समझ पुस्तकों से ही मिली। वरना किससे पूछती! कभी खुशी मिलती, लिख लेती। जब कभी दुखी होती, लिख लेती। आस-पास सुनने वाली कोई नहीं थी।
लेलिन-मार्क्स को पढ़ना शुरू किया। सिवाय गायत्री मंत्र– ॐ नमः शिवाय –वो भी कभी-कभी, जब बेहद विचलित होती रही.. रात्रि में सोते समय जप लेती हूँ। 'वोल्गा से गंगा' पढ़ने के बाद पूजन का अर्थ इतना ही समझ में आ सका।
समय कालान्तर में बहन-बेटी-सखी विहीन मैं, मेरे लिए पुस्तकें नींद लाने में सहायक हुईं। विधा में लेखन शुरू किया तो अध्ययन अत्यन्त आवश्यक हो गया।
छन्दमुक्त कविता, मुक्तक, हाइकु दोहा लघुकथा को समझने में सहायक।
उदाहरण के रूप में देखें:-©रवि कुमार 'रवि'
वह उसकी आँखों की गहराईयों में डूब गया
यह पंक्ति बिल्कुल सपाट है और यह कविता की आदर्श पंक्ति नहीं हो सकती | अगर इसी पंक्ति को हम इस प्रकार लिखें:-
गहरा बहुत है उसकी आँखों का समंदर
एकबार डूबा कि डूबता गया वह
उपरोक्त दोनों पंक्तियों के भाव एक जैसे हैं परंतु कहन और शिल्प बिल्कुल जुदा | हमें इसतरह अपने शिल्प और शब्दों के चयन पर विशेष ध्यान देना होगा |
सन् 2015 में डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी से भेंट हुई तो उनसे जाना कि सौ पृष्ठ पढ़ लो तो एक पृष्ठ का लेखन करो। किसी ग़ज़लकार ने भी कहा कि हजार शेर पढ़ लो तो ग़ज़ल लिखना शुरू करो
कथानक, वाक्य विन्यास, शैली, शिल्प, मुहावरे, शब्दों के चयन और अलंकार आदि पढ़ने से ही समझ में आने लगे।
बस! पाठक का पाथेय होना इतना ही...
बहुत कम में बहुत कुछ है। जीवन में काफ़ी समानताऐं मिलती हैं। किताबें सब वही हमारे समय की। बस यहां जमा करने में ज्यादा रूचि है।
ReplyDeleteप्रिय दीदी,आपने जोपढा,जिन्हेँ पढा ,हमारे स्वर्गीय ताऊ जी के साहित्य प्रेम की बदौलत हमने भी पढा।मुझे भी लगता है,किताबें हमारी प्राण वायु हैं।किताबों ने संवेदनशील बनाया और बौद्धिक गतिविधियों के द्वारा भीतर सन्तोष की भावना का विस्तार किया। किताबें ना होती तो हम भी ना होते।बहुत अच्छा लिखा है आपने 🙏🙏🌹🌹
ReplyDeleteइसलिए ही तो किताबो को सबसे अच्छा दोस्त कहा जाता है। सुंदर रचना।
ReplyDeleteआपके आलेख को दिल के बहुत करीब पाया । जैसे अपनी ही बात हो । गुणी जन बार-बार दोहराते हैं- सौ पढ़ो । एक लिखो । अपना निजी अनुभव साझा करने के लिए आपका हार्दिक आभार । और बधाई!
ReplyDelete