"सोच भी नहीं सकती थी कि आप! आप मेरे पीठ पीछे मेरा! मेरा शिकायत पापा से करेंगी।"
"मैं पूछ रहा हूँ न तुम चुप रहोगी कुछ देर।"
"नहीं मुझे पूछना है.. इनसे ही सीखने को मिला है मुँह पर पूछो। इतने वर्षों से महान होने का जो दिखावा कर रही थीं। मेरा शिकायत कीं तो हर्ट मैं हुई हूँ..,"
"बोलो माँ कुछ बोलो अगर तुम्हें इससे कोई शिकायत थी तो तुम इससे कह देती। इसके पीठ पीछे क्यों... ? आख़िर क्यों... ?कुछ तो बोलो...,"
"तुम सुने मैं जो कह रही थी.. तुम अब सज़ा सुना दो मुझे तुम से कुछ नहीं कहना।"
"मैंने कुछ नहीं सुना.. यह सुनी और रोते हुए मेरे पास आयी। मैंने कहा मैं माँ से बात करूँगा।"
"अगर उसने सुना तो उसी समय वह सामने आकर पूछ लेती क्या बातें हो रही हैं... इतने वर्षों से मैं महान होने का दिखावा कर रही थी। वर्षों तक दिखावा किया जा सकता है.. आख़िर क्या चाहिए था मुझे उससे?"
"इतने वर्षों में आपको पोता-पोती नहीं दे सकी।"
"तुमसे चुप रहने के लिए कहा और तुम अनर्गल बकवास किये जा रही हो। माँ तुम बताओ न क्या बात हो रही थी।"
"सुबह में रात का सारा बर्तन..,"
"माँ डिस वाश मशीन किसलिए है? सारी सुख-सुविधाओं का सामान जुटा सकते हैं... अब कोई प्रयोग ही ना करे..,"
"डिश वाश मशीन है ... जला कुकर कढाड़ी तवा बिना रगड़े और डिश भी खंगाल कर डालो तो साफ करता है.. रात का सूखा जूठा नहीं छोड़वा देता है।"
"तो तुम्हें क्या जरूरत है करने की?"
"यही तो तुम्हारे पापा भी कह रहे थे छोड़ दो बहू कर लेगी.. लेकिन मैंने ही कहा जला कुकर है बहू से साफ नहीं होगा.. और उसको समय कहाँ मिलता है.. वर्क एट होम में तो पानी नहीं पी पाती है... अभी बाहर से लौटेगी तो आराम रहेगा उसे। सुबह से शाम तक के बर्तन रगड़ने से आटा गूँथने में पीठ हाथ दर्द करने लगा था। चिन्ता करना और शिकायत करना एक ही है तो क्या बोलूँ.. बोलने के लिए क्या रह गया है.."
"वो आधी-अधूरी बात सुनी और रिश्तों में सूनापन ला दी, और मैं कान के विष के वशीभूत अशान्ति फैलाने में सफल रहा...,"
"कोई बात नहीं ! हो जाता है कभी-कभी, समय रहते दरार पाट लेनी चाहिए..।"
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteरिश्तों में कभी-कभी ऐसे मोड़ आते हैं परंतु वही बात सत्य है जो आपने आखिरी पंक्ति में कही है कि समय रहते दरार पाट लेनी चाहिए ..पारिवारिक रिश्तों को बयान करती सारगर्भित रचना..
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 22 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसस्नेहाशीष व असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार छोटी बहना
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (23-12-2020) को "शीतल-शीतल भोर है, शीतल ही है शाम" (चर्चा अंक-3924) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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समय रहते रिश्तों को जोड़ लेना चाहिए ... सच कहा है आपने ...
ReplyDeleteसुन्दर आलेख ...
रिश्तो को जोड़े रखने के लिए थोड़ा संयम जरूरी है। सारगर्भित कहानी।
ReplyDeleteकोई बात नहीं ! हो जाता है कभी-कभी, समय रहते दरार पाट लेनी चाहिए
ReplyDeleteबहुत सटीक सुन्दर एवं सार्थक सृजन।
मननीय ।
ReplyDelete"वो आधी-अधूरी बात सुनी और रिश्तों में सूनापन ला दी, और मैं कान के विष के वशीभूत अशान्ति फैलाने में सफल रहा...,"ऐसे ही तो रिश्तों में दरारे आती है,सजग करती रचना,सादर नमन दी
ReplyDeleteदेर आते दुरुस्त आये।
ReplyDeleteरिश्तों में खटास पड़ने से पहले बात साफ करनी बेहतर है।
शिक्षा देती लघु कर।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteअति सुन्दर सृजन,जीवंत व रिश्तों का सुन्दर प्रवाह लघु कथा में परिलक्षित होता है ।
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