जब तक
तलाश रही सांता की
उम्मीद की उलझन
मकड़ी जाल में
कैद रही जिन्दगी।
कोहराम हवाएँ
दुःख के बवंडर
सदमा के सैलाब
छलके आँसू
छूटी परिंदगी।
खुद को जो चाहिए
उसे पहले बाँट ली
दोगुनी मात्रा में वापिस
मिल गयी बन्दगी।
बुद्ध होना ना
तो कठिन है और
ना नामुमकिन
बस छोटी लकीर के आगे
बड़ी लकीर खींचने के
जद्दोजहद से बच निकलो।
लकीर के फ़कीर होना
कहाँ तक सामयिक
यह तो तौल कर नाप लो।
लकीर भी जरूरी और फ़कीर भी। :) सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत सही। बहुत खूब।
ReplyDeleteबुद्ध होना ना
ReplyDeleteतो कठिन है और
ना नामुमकिन
बस छोटी लकीर के आगे
बड़ी लकीर खींचने के
जद्दोजहद से बच निकलो।
एकदम सटीक... लाजवाब।
सशक्त संदेश से युक्त सार्थक रचना..
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