"बाबूजी!"
"आइये बाबूजी!"
"आ जाइए न बाबा.." मंच से बच्चों के बार-बार आवाज लगाने पर बेहद झिझके व सकुचाये नारायण गोस्वामी मंच पर पहुँच गए।
मंच पर नारायण गोस्वामी के पाँच बच्चें जिनमें चार बेटियाँ , स्वीकृति, संप्रीति स्मृति, स्वाति और एक बेटा साकेत उपस्थित थे।
"मैं बड़ी बिटिया स्वीकृति महिला महाविद्यालय में प्रख्याता हूँ।"
"मैं संप्रीति चार्टर्ड एकाउंटेंड हूँ।"
"मैं स्मृति नौसेना में हूँ।"
"मैं स्वाति बायोटेक इंजीनियर हूँ।
"मैं अपने घर में सबसे छोटा तथा सबका लाड़ला साकेत आपके शहर का सेवक हूँ जिला कलेक्टर।
आप सबके सामने और हमारे बीच हमारे बाबूजी हैं 'श्री नारायण गोस्वामी'।"
"आपलोगों के बाबूजी क्या कार्य करते थे ? यह जानने के लिए हम सभी उत्सुक हैं।" दर्शक दीर्घा के उपस्थिति में से किसी ने कहा।
"हमारे बाबूजी कब उठते थे यह हम भाई बहनों में से किसी को नहीं पता चला। पौ फटते घर-घर जाकर दूध-अखबार बाँटते थे। दिन भर राजमिस्त्री साहब के साथ, लोहा मोड़ना, गिट्टी फोड़ना, सीमेंट बालू का सही-सही मात्रा मिलाना और शाम में पार्क के सामने ठेला पर साफ-सुथरे ढ़ंग से झाल-मुढ़ी, कचरी-पकौड़े बेचते थे।"
दर्शक दीर्घा में सात पँक्तियों में कुर्सियाँ लगी थीं.. पाँच पँक्तियों में पाँचों बच्चों के सहकर्मी, छठवीं में इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया -प्रिंट मीडिया केे पत्रकार व रिश्तेदारों के लिए स्थान सुरक्षित था तो सातवीं पँक्ति में नारायण गोस्वामी बाबूजी के मित्रगण उपस्थित थे।
पिन भी गिरता तो शोर कर देता...।
ओहदा तो बुद्धि और मेहनत के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं पर महत्वपूर्ण होता है संस्कार...अपने पोषणकर्ता का त्याग और बलिदान को मात्र उनका कर्तव्य न समझ वाली संतान से बेशकीमती कोई जायदाद नहीं।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी लघुकथा दी।
प्रणाम दी।
सादर।
सभी परिवार इसी तरह हों और सब जगह बाबू जी भी। सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 11 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१२-१२-२०२०) को 'मौन के अँधेरे कोने' (चर्चा अंक- ३९१३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
बहुत ही सुंदर, दिल को छूने वाली रचना..।आपको मेरा सादर नमन..।
ReplyDeleteइस हृदयस्पर्शी लघुकथा के लिए साधुवाद विभा जी 🌹🙏🌹
ReplyDeleteबहुत सुंदर लघुकथा ...
ReplyDeleteप्रेरक भी !!!
कितने सुन्दर संस्कार और सदाचरण की शिक्षा दी है सन्तानों को -प्रणम्य हैं ऐसे पिता.
ReplyDeleteबहुत सुंदर लघुकथा
ReplyDeleteबहुत सुंदर, बाबूजी शायद ऐसे ही होते हैं
ReplyDeleteदर्शक हूटिंग करते तो कैसे
ReplyDeleteपढ़ने वाले भी अवाक रह गए।
जोरदार।
नई रचना- समानता
प्रेरणादायक लघुकथा।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लघुकथा
ReplyDeleteबहुत प्रेरक कथा. बाबूजी के दोस्तों को अंतिम पंक्ति में बिठाना; समाज आज भी उन्हें वह सम्मान नहीं देता. परन्तु बाबूजी का संस्कार उन बच्चों में ज़रूर दिखा.
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