Friday, 25 December 2020

बुद्ध

जब तक
तलाश रही सांता की
 उम्मीद की उलझन
मकड़ी जाल में
कैद रही जिन्दगी।
कोहराम हवाएँ
दुःख के बवंडर
सदमा के सैलाब
छलके आँसू
छूटी परिंदगी।
खुद को जो चाहिए
उसे पहले बाँट ली
दोगुनी मात्रा में वापिस
मिल गयी बन्दगी।

बुद्ध होना ना
तो कठिन है और
 ना नामुमकिन
बस छोटी लकीर के आगे
बड़ी लकीर खींचने के
जद्दोजहद से बच निकलो।
लकीर के फ़कीर होना
कहाँ तक सामयिक
यह तो तौल कर नाप लो।

4 comments:

  1. लकीर भी जरूरी और फ़कीर भी। :) सुन्दर।

    ReplyDelete
  2. बहुत सही। बहुत खूब।

    ReplyDelete
  3. बुद्ध होना ना
    तो कठिन है और
    ना नामुमकिन
    बस छोटी लकीर के आगे
    बड़ी लकीर खींचने के
    जद्दोजहद से बच निकलो।
    एकदम सटीक... लाजवाब।

    ReplyDelete
  4. सशक्त संदेश से युक्त सार्थक रचना..

    ReplyDelete

आपको कैसा लगा ... यह तो आप ही बताएगें .... !!
आपके आलोचना की बेहद जरुरत है.... ! निसंकोच लिखिए.... !!

कंकड़ की फिरकी

 मुखबिरों को टाँके लगते हैं {स्निचेस गेट स्टिचेस} “कचरा का मीनार सज गया।” “सभी के घरों से इतना-इतना निकलता है, इसलिए तो सागर भरता जा रहा है!...